#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*खड्ग धार विष ना मरै, कोइ गुण व्यापै नांहि ।*
*राम रहै त्यों जन रहै, काल झाल जल मांहि ॥*
=================
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
.
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
.
ज्यों है फहम१ का, त्यों ही साधु सुजान ।
उभय अवनि उखरी रूपै, बधैं सुदिशि असमान ॥२५॥
फरास का वृक्ष उखड़ने पर भी पुन: पृथ्वी से रोपने से लग जाता है और आकाश की और ही बढ़ता है, वैसे ही ज्ञानी संत की बुद्धि किसी१ कारण विशेष से ब्रह्म से हट जाती है तो पुन: ब्रह्म-विचार में लगकर ब्रह्म की ओर बढ़ती है ।
.
मुदित न माया आवतैं, जाती शक्ति न शोग१ ।
रज्जब रिधि मधि यूं मुकत, भावी२ करहिं सुभोग ॥२६॥
संत माया आने से प्रसन्न नहीं होते और न माया के जाने से शोक१ नहीं करते, इस प्रकार वे माया में रहते हुये भी जीवन मुक्त होकर रहते हैं, प्रारब्ध२ वश ही माया का उपभोग करते हैं ।
.
शक्ति१ रूप आये गये, साधु रस रंग२ एक३ ।
सो रज्जब माया मुकत, पाया परम विवेक ॥२७॥
माया१ को कोई भी प्रकार का रूप आने वा जाने में संत अद्वैत३ ब्रह्म-रस के प्रेम२ में स्थिर रहते हैं, जिससे उक्त प्रकार परम विवेकपूर्वक ज्ञान प्राप्त कर लिया वही माया से मुक्त हैं ।
.
माया काया में मुकत, आतम गुण हुँ अतीत१ ।
सो भगता भगवंत सम, जन रज्जब तत२ जीत ॥२८॥
जिस की बुद्धि मायिक गुणों से अलग१ होकर ब्रह्म-विचार में स्थित है, जो माया तथा काया में रहते हुये भी माया-काया से मुक्त हैं और जिस ने पंचतत्त्व तथा उसके कार्य पंच ज्ञानेन्द्रिय को जीत२ लिया है, वह भक्त भगवान के समान ही माना जाता है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें