सोमवार, 21 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*काया कठिन कमान है, खांचै विरला कोइ ।*
*मारै पंचों मृगला, दादू शूरा सोइ ॥* 
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निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।
पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः॥ १८- ४६
(अष्टावक्र: महागीता) 
भावार्थ : कामना रहित ज्ञानी शेर है, उसे देखते ही विषय रूपी मतवाले हाथी चुपचाप भाग जाते हैं, उनकी एक नहीं चलती, उलटे वे तरह-तरह से खुशामद करके सेवा करते हैं। 
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वासना रहित पुरुष सिंह को देख कर विषयरूपी हाथी चुपचाप भाग जाते हैं, या वे असमर्थ होकर उसकी चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं। अनुगत हो जाती है वासना, अनुगत हो जाता है मन। हम एक बार जाग जाए बस, फिर मन को अधिग्रहण नहीं करना पड़ता, मन खुद ही झुक जाता है। मन कहता है, आज्ञा क्या कर लाऊं? आप जो कहें। मन हमारे साथ हो जाता है। हम स्वामी हो जाते हैं, स्वयं के, अभी मन हमारा स्वामी हैं, जिस लिए हम बंधे हैं संसार में।
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अभी मन स्वामी बना बैठा है, सिंहासन पर बैठा है। क्योंकि सिंहासन पर जिसको बैठना चाहिए वह निंद्रा में पड़ा है। जिसका सिंहासन है, उसने अपना अधिकार नहीं माँगा। तो अभी नौकर चाकर सिंहासन पर बैठे हैं, और उनमें बड़ी कलह मच रही है। क्योंकि एक दूसरे को खींचतान कर रहे हैं. कि मुझे बैठने दो, कि मुझे बैठने दो। मन में हजार वासनाएं हैं। सभी वासनाएं कहती हैं, मुझे सिंहासन पर बैठने दो। मालिक के आते ही वे सब सिंहासन छोड़ कर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं, चाटुकार की तरह सेवा करने लगते हैं।
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या तो भाग ही जाती हैं ये छायाएं, या फिर सेवा में रत हो जाती हैं। वास्तविक बात है, वासनारहित पुरुषसिंह। परन्तु क्या करें? यह वासना रहित पुरुषसिंह कैसे पैदा हो? यह सोया हुआ सिंह कैसे जागे? भगोड़ों से न होगा। क्योंकि भगोड़ों ने तो मान ही लिया, हम कमजोर हैं। जिसने मान लिया कमजोर हैं, वह कमजोर रह जाएगा। हमारी मान्यता हमारा जीवन बन जाती है। जैसा मानेंगे वैसे हो जायेंगे। 
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मैं सिंह हूं यह स्मरण रखना आवश्यक है। मन खींचेगा। मन चुनौतियां देगा। हमने यदि अपने स्वामी होने की घोषणा कर दी, हम जाने कि ठीक है, तू चुतौती दिए जा, हम स्वीकार नहीं करते। न हम लड़ेंगे तुझसे, न हम तेरी मानेंगे। तू चिल्लाता रह। कुत्ते भौंकते रहते हैं, हाथी गुजर जाता है। तू चिल्लाता रह। और यदि ऐसा हो, तो हम चकित होजाएंगे, थोड़े दिन यदि हम मन को चिल्लाता छोड़ दे, धीरे धीरे उसका कंठ सूख जाता हैं। धीरे-धीरे वह चिल्लाना बंद कर देता हैं। और जिस दिन मन चिल्लाना बंद कर देता है उस दिन, उस दिन ही अंतर्गुफा में प्रवेश हुआ। बाहर की कोई गुफा काम न आएगी। बाहर शरण लेने से कुछ अर्थ नहीं होगा।
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**अ-शरण हो जाओ। बाहर शरण लेना ही नहीं। अ-शरण हुए तो ही आत्मशरण मिलती है।**
जय सनातन।

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