शनिवार, 26 मई 2018

= १०८ =



卐 सत्यराम सा 卐
*एक देश हम देखिया, नहिं नेड़े नहिं दूर ।*
*हम दादू उस देश के, रहे निरंतर पूर ॥* 
*एक देश हम देखिया, जहँ निशदिन नांहीं घाम ।*
*हम दादू उस देश के, जहँ निकट निरंजन राम ॥* 
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साभार ~  oshoganga.blogspot.com

स्टेशन की तरह सब बदलता रहता है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म-यात्री चलता जाता है। मनुष्य स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेता। दिल्ली के स्टेशन पर ऐसा तो नहीं समझ लेता कि मैं दिल्ली हूं। फिर कानपुर पहुंचा तो ऐसा कभी नहीं समझता कि कानपुर हो गया - मनुष्य यात्री है। मनुष्य द्रष्टा है - जिसने देखा कि दिल्ली आया और गया। कानपुर आया और गया। मनुष्य देखने वाला है, जिसने सब आते जाते देखा। तो प्रथम तो जो हो रहा है, उसमें से देखने वाले को अलग करें। 
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**'देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम......।'** 
और करने योग्य कुछ और है भी नहीं। - जो विश्राम में अपनी चेतना को ठहरा देता है, होने मात्र में ठहर जाता है.......। कुछ करने को नहीं है, क्योंकि जिसे मनुष्य खोज रहा है; वह मिला ही हुआ है। जिसे खोज रहा है मनुष्य, वह कभी खोया ही नहीं है। उसे खोया जा नहीं सकता।
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वह मनुष्य का स्वभाव है। अयमात्मा ब्रह्म ! तुम ब्रह्म हो। तुम सत्य हो ! कहां खोजते फिर रहे हो? अपने को ही खोजने मनुष्य कहां भागा चला जा रहा है? रुके, ठहरे ! दौड़ने से वह नहीं मिलता। कुछ करने से वह मिलता क्योंकि मनुष्य वह है ही। कहीं जाने को नहीं है, कहीं पहुंचने को नहीं है। केवल चैतन्य में विश्राम, तो अभी ही; इसी क्षण - अधुनैव - सुखी, शांत, और बन्ध-मुक्त हो जायेगा।
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**'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू कोई आश्रम वाला है और न आंख आदि इन्द्रियों का विषय है। असंग और निराकार तू समस्त विश्व का साक्षी है। ऐसा जान कर सुखी हो।'** 
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये सब ऊपर के आरोपण हैं और समाज के खेल हैं। मनुष्य अपने सत्य और वास्तविक स्वरूप में ब्रह्म है। न तो ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है; न वैश्य है, न शूद्र है। और भी न तो मनुष्य किसी ब्रह्मचर्य आश्रम में है, न गृहस्थ आश्रम में है; न वानप्रस्थ आश्रम में और न संन्यास आश्रम में - मनुष्य इन सारे से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है। ये सत्य की घोषणा है। 
**'असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है - ऐसा जान कर सुखी हो।'** 
प्रश्न था - कैसे सुख होगा? कैसे बंधन-मुक्ति होगी? कैसे होगा ज्ञान?
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उत्तर है - अभी ही हो सकता है, क्षण भर भी देर करने की कोई जरूरत नहीं है; स्थगित करने की कोई जरूरत नहीं है। ये भविष्य में घटित नहीं होता। जब भी घटित होता है, अभी इसी क्षण घटित होता है। भविष्य है ही कहां ? जब आता है अभी की तरह आता है। कभी पर छोड़ना मन की चालाकी है। मन हमेशा कहता है कि इतनी जल्दी कैसे हो सकता है ? अभी के अतिरिक्त कोई और समय है ही नहीं। अभी है जीवन ! अभी है मुक्ति ! अभी है ज्ञान ! अभी ही सब हो सकता है।

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