शनिवार, 26 मई 2018

= १०७ =



卐 सत्यराम सा 卐
*तू मुझ को मोटा कहै, हौं तुझ बड़ाई मान ।*
*सांई को समझै नहीं, दादू झूठा ज्ञान ॥* 
*साचे को झूठा कहैं, झूठा साच समान ।*
*दादू अचरज देखिया, यहु लोगों का ज्ञान ॥*
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साभार ~  oshoganga.blogspot.com
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मनुष्य सम्मान चाहता है, और जब अपमान मिलता है तो दुःखी होता है। सम्मान चाहता ही वही मनुष्य है, जिसका स्वयं के प्रति कोई सम्मान नहीं है; इसीलिये तो दूसरों से सम्मान चाहता है। सम्मान की आकांक्षा ये इंगित करती है कि मनुष्य भीतर अपमानित अनुभव कर रहा है, उसे अनुभव हो रहा है कि मैं कुछ नहीं हूं। दूसरे मुझे सिंहासन पर बिठा दें, मेरे नाम के झंडे उठा लें - दूसरे कुछ कर दें। ऐसा मनुष्य भिखमंगा है, उसने स्वयं का अपमान तो खुद से ही कर लिया जब दूसरे से सम्मान चाहा और ये अपमान गहन होता चला जाएगा।
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सम्मान उन्हें ही मिलता है इस संसार में, जिन्होंने सम्मान कभी चाहा ही नहीं। सफलता उन्हें मिलती है, जिन्होंने सफलता कभी चाही नहीं। क्योंकि सफलता न चाहने वाले ने स्वीकार कर ही लिया है कि सफल मैं हूं ही, अब और चाहना क्या? परमात्मा ने जन्म देकर सम्मान दे दिया, अब और कैसा सम्मान चाहता है मनुष्य? सम्मान भीतर आत्मा का है, अब और क्या सम्मान चाहना? **परमात्मा ने पहले ही जन्म देकर गौरव दे दिया है - प्रमाण दे दिया है - अब भिखारी की तरह और प्रमाण क्यों मांगना?**
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बड़ी आश्चर्यजनक स्थिति है ये : दो भिखारी-एक दूसरे से भीख मांग रहे हैं। ये भीख मिलेगी कैसे? दोनों भिखारी हैं। किससे सम्मान मांग रहा है मनुष्य? जिससे मांग रहा है, वह स्वयं इसी सम्मान का याचक है। इस तरह स्वयं का अपमान कर रहा है मनुष्य, और ये अपमान गहन होता चला जाता है। संतोष का अर्थ है : देखे मनुष्य जो उसके पास है, आंखे खोल कर देखे जो उसे मिला ही हुआ है। **'संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।'** क्योंकि असत्य के साथ जो जीयेगा, वह असत्य होता जाएगा। जो असत्य बोलेगा, असत्य को जीयेगा; स्वभावतः वह असत्य से घिरता चला जाएगा। सत्य से उसके सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाएंगे।
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परमात्मा में यदि जड़ें चाहता है मनुष्य तो सत्य के द्वारा ही वे जड़ें मिलेंगी। प्रमाणिकता और सत्य के द्वारा ही मनुष्य परमात्मा से जुड़ सकता है। जितना ही मनुष्य असत्य होता जाएगा, उतना ही परमात्मा से दूर होता चला जाएगा। *'तू न पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न आकाश है। मुक्ति के लिए आत्मा को, स्वयं को इन सबका साक्षी चैतन्य जान।' सीधा - २ सत्य है - कोई भूमिका नहीं है। 'साक्षी' है सूत्र, इससे महत्वपूर्ण और कोई सूत्र नहीं है।*
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द्रष्टा बने मनुष्य, जो हो रहा है; उसे होने दे, बाधा डालने की कोई जरूरत नहीं है। ये शरीर जल है, मिट्टी है, अग्नि है, आकाश है, मनुष्य इसके भीतर वह ज्योति है जिससे ये सब प्रकाशित हो रहे हैं। मनुष्य द्रष्टा है। 'साक्षी' इस जगत में सबसे मूल्यवान सूत्र है। इसी से होगा वैराग्य, इसी से होगी मुक्ति। **'यदि तू देह से अपने को अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है तो तू अभी ही सुखी, शांत और बंध-मुक्त हो जाएगा।'** ये जड़-मूल से क्रांति है। **'अधुनैव !'** अभी, यहीं; इसी क्षण। यदि तू देह से स्वयं को अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है ........!
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यदि ये प्रतीत हो गई कि ये शरीर मैं नहीं हूं, मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; ये जो भीतर द्रष्टा है - जो सब देखता है - जब बचपन था, तो बचपन देखा, जवानी आई, तो जवानी देखी; बुढ़ापा आया, तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन नहीं हो सकता - आया और गया - मैं तो हूं ! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी नहीं हो सकता - आई और गई - मैं तो हूं ! बुढ़ापा आया, जा रहा है; तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। जो आता है, और चला जाता है; वह मैं कैसे हो सकता हूं। जिस पर बचपन आया, जवानी आई; बुढ़ापा आया, हजार चीजें आईं और गईं - मैं वही शाश्वत हूं।

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