गुरुवार, 31 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(५३-५६) =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जरा काल जामण मरण, जहाँ जहाँ जीव जाइ ।*
*भक्ति परायण लीन मन, ताको काल न खाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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सकल सृष्टि शिर शेष के, माया मुद्रा माँहिं । 
रज्जब भारी के भजन, हलके२ पूजैं१ नाँहिं ॥५३॥ 
सभी सृष्टि शेषजी के शिर पर है और लक्ष्मी रूप माया भी उनके शरीर की मुद्रा में है अर्थात शेष शय्या पर है तो भी उसके भजन में सृष्टि का भार वा माया विघ्न नहीं कर सकती, अत: छोटे२ बङों के भजन को नहीं पहुँचते१ अर्थात उनकी समता नहीं कर सकते । 
मारुत१ भख२ पति३ मरजीवहुं, होड न ह्वै नर नीच । 
मही४ महोदधि५ उन शिरहुं, बोझ बात अन्य मीच६ ॥५४॥
वायु१ को खाने२ वाले सर्पों के स्वामी शेष३जी की वा मरजीवा की बराबरी तुच्छ जीवों से नहीं हो सकती, शेषजी के शिर पर संपूर्ण पृथ्वी४ है और मरजीवा के शिर पर समुद्र५ की जल राशि है, अन्य को तो इतना बोझा उठाने की बात से भी मौत६ आने लगेगी । वैसे ही माया मध्य मुक्त जनों की समता साधारण प्राणी नहीं कर सकते । 
मोर चकोर महन्त भख, विष१ वह्नी२ रु विभूति३ । 
अनय कटै अरु आँच कथ, तिहुं होत मृत सूत४ ॥५५॥ 
मोर का भक्ष्य विषयुक्त सर्प१ है, चकोर का भक्ष्य अग्नि२ है, महान संत का भक्ष्य माया३ है, मोरादि तीन को तो सर्पादि तीन ठीक४ है, किन्तु अन्य को सर्प, अग्नि, और माया और माया तीनों काटने, जलाने और मिथ्या कह कर त्यागने से मृत्यु प्रदाता ही सिद्ध होते हैं । 
सर्प शक्ति१ विष ना चढे, गरुड़द्वार२ मुख नाम । 
दुहुं४ को दोष न दोय का, दुनी३ मरै जिहिं ठाम ॥५६॥ 
मोर के पंखों से निकला हुआ ताँमा२ मुख में रखने से सर्प विष नहीं चढ़ता और भगवान् का नाम मुख में रखने से माया१ का विष नहीं चढ़ता, सर्प विष और मायाजन्य दोषों से दुनिया३ के प्राणी मरते हैं, किन्तु उन दोनों४ का दोष उक्त गरुड़द्वार और नाम जिनके मुख में है उन दोनों को नहीं लगता, वे नहीं मरते ।
(क्रमशः)

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