गुरुवार, 31 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*तन मन विलै यों कीजिये, ज्यों घृत लागे घाम ।*
*आतम कमल तहँ बंदगी, जहँ दादू प्रकट राम ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

एक ही बंधन है कि मनुष्य स्वयं को छोड़कर दूसरे को द्रष्टा देखता है और एक ही मुक्ति है कि मनुष्य स्वयं को द्रष्टा जान ले। किसी वृक्ष को मनुष्य देखता है तो धीरे-२ वृक्ष को देखते-२ उसको भी मनुष्य देखना शुरू करे जो वृक्ष को देख रहा है। जरा बोधपूर्ण होना पड़ेगा। 
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साधारणतः चेतना का तीर वृक्ष की तरफ जा रहा है। इसे दोनों तरफ कर ले मनुष्य-वृक्ष को भी देखे और साथ ही प्रयास करे उसे भी देखने का जो वृक्ष को देख रहा है। देखने वाले को न भूले, बार-२ भूलेगा क्योंकि जन्मों-२ की आदत है। लेकिन बार-२ देखने वाले को पकड़े। जैसे-२ देखने वाला पकड़ में आएगा, कभी क्षण भर को भी पकड़ में आ गया; तो भीतर अन्तस् में एक अपूर्व शांति उतर आएगी। एक सौभाग्य उतरा। एक क्षण के लिए भी यदि ये घटित हो गया, तो एक क्षण के लिए ही सही; मुक्ति का स्वाद मनुष्य को मिल जाएगा।
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ये स्वाद मनुष्य के जीवन को रूपांतरित कर देगा। यहां पढ़ते क्षण में, साथ में उसे भी देखे मनुष्य जो पढ़ रहा है। बोध, होश यदि जो पढ़ रहा है मनुष्य; यदि केवल उसमे ही अटक कर रह गया, तो मनुष्य दर्शक मात्र रह गया।
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जब भी होश विषय पर अटक जाए, मनुष्य दर्शक ही रह गया। पढ़ते क्षण में पढ़ने वाले का भी बोध बना रहे-धीरे-2 मनुष्य पायेगा कि जिस क्षण में पढ़ने वाले को भी पकड़ लिया-उसी क्षण में ही केवल मनुष्य ने पढ़ा, शेष सब पढ़ना व्यर्थ गया। केवल तभी जो यहां कहा जा रहा है,मनुष्य उसे ही समझेगा। यदि पढ़ने वाले को न पकड़ पाया मनुष्य तो न जाने क्या-२, जो यहां कहा नहीं गया है; वह भी समझ लेगा। मनुष्य का मन नए-२ जाल बुन लेगा। मनुष्य बेहोश है, बेहोशी में कैसे होश की बातों को समझ सकेगा? मनुष्य ने यदि नींद में पढ़ा तो इनके आस-पास सपने बुन लेगा। अपने ढंग से इनका अर्थ निकालेगा। इनकी व्याख्या कर लेगा और उस व्याख्या से वास्तविक अर्थ खो जाएगा।
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बन्धन स्वप्न जैसा है। जैसे रात कोई दिल्ली में सोये, तो सपने में कलकत्ता में भी हो सकता है; या कहीं और भी हो सकता है। जागने पर स्वयं को दिल्ली में ही पायेगा। सपने में कलकत्ते चले गए हैं तो लौटने के लिए हवाई यात्रा नहीं करनी पड़ेगी। यात्रा करनी ही नहीं पड़ेगी। सुबह नींद से जागने पर मनुष्य स्वयं को दिल्ली में ही पायेगा। सुबह मनुष्य पायेगा कि वह कहीं गया ही नहीं था। सपने में ही कलकत्ता पहुंच गया था। स्वप्न में जाना भी कोई जाना है?
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*'बंधन तो एक ही है तेरा कि तू स्वयं को छोड़ कर दूसरे को द्रष्टा देखता है।'*
एक ही बन्धन है कि मनुष्य को होश नहीं है।
*'मैं कर्ता हूं, ऐसे अहंकार रूपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू; मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।'*
मनुष्य की मान्यता ही सब कुछ है, मनुष्य मान्यता के स्वप्न में पड़ा हुआ है। अपने को मनुष्य जो मान लेता है, वैसा ही हो जाता है। ये भारतीय मनीषा का सार निचोड़ है।
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किसी सम्मोहनविद् को सम्मोहन करते यदि देखा है तो मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाएगा। वो यदि किसी पुरुष को सम्मोहित करदे और कहे कि तू स्त्री है, तो वह पुरुष स्त्रियों की तरह चलने लगेगा। ये अत्यंत कठिन है कि कोई पुरुष स्त्री की भांति चलने लगे। क्योंकि पुरुष और स्त्री के शरीर की संरचना अलग-२ है। बहुत अभ्यास करके भी पुरुष का स्त्री की तरह चलना अत्यंत कठिन है। लेकिन सम्मोहनविद् इस कठिनाई को भी सम्मोहन से समाप्त कर देता है।
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इस पर बहुत से प्रयोग हुए हैं कि सम्मोहनविद् किसी मनुष्य को सम्मोहित करके उसके हाथ में एक कंकड़ रखकर कहे कि लो ये अंगारा पकड़ो, तो वह सम्मोहित व्यक्ति उसे झटक कर फ़ेंक देता है। इतने तक ही होता तब भी ठीक था। वह जल जाता है और उसके हाथ में फफोला भी पड़ जाता है। गहन श्रद्धा में मनुष्य जो मानता है, वही वह हो जाता है। *'मैं कर्ता हूं ऐसे अहंकार-रूपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।'* इसी क्षण ये घटित हो सकता है। मैं कर्ता हूं, ऐसी मनुष्य की धारणा है, उस धारणा के अनुसार मनुष्य का अहंकार निर्मित होता है। कर्ता यानि अस्मिता।
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जितना बड़ा कर्तृत्व उतना ही बड़ा अहंकार निर्मित हो जाता है। एक बड़ा साम्राज्य बनाया तो उतना ही बड़ा अहंकार भी निर्मित हो जाता है। इसीलिये दुनिया विजय करने को कुछ पागल निकल पड़ते हैं।वे दुनिया विजय करने नहीं-ये घोषणा करने कि मेरा अहंकार इतना विराट है कि दुनिया को समेट लूंगा-निकलते हैं। दुनिया किसने कब विजय की है? दुनिया पर कोई कभी विजय नहीं पा सका है। ये अहंकार की आकांक्षा है। अहंकार जीता है उस सीमा पर, जिसे मनुष्य कर सकता है। मनुष्य का कर्तव्य मनुष्य के अहंकार को भरता है। *इस सूत्र को ध्यान में रखें : मैं कर्ता हूं - ऐसे अहंकार - रुपी अत्यंत काले सर्प से दंशित हुआ तू व्यर्थ ही पीड़ित और परेशान है।'*

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