#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*विष सुख माँहैं रम रहे, माया हित चित लाइ ।*
*सोई संतजन ऊबरे, स्वाद छाड़ि गुण गाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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रैणायर१ रिधि२ मध्य धसि, मोहन मुक्ता लेहिं ।
मरजीवा मुनि३ सहज कृत, और तहां जीव देहिं ॥५७॥
समुद्र१ में घुसकर मरजीवा मोती लेता है और माया२ में घुसकर मननशील संत३ विश्वविमोहन ब्रह्म का साक्षात्कार करता है, उक्त कार्य मरजीवा और मुनि के लिये सहज है, किन्तु अन्य करने लगे तो प्राण खो बैठेंगे ।
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झंपा१ पाती२ मरजीवे, पैठैं दरिया माँहिं ।
इक मुक्त ले बाहुड़े, इक मर मधि आवे नांहि ॥५८॥
एक तो छलांग१ मारके पड़ने२ वाला और दूसरा मरजीवा दोनों समुद्र में घुसते३ हैं उनमें मरजीवा तो मोती लेकर लौटता है और दूसरा भीतर ही मर जाता है जीवित बाहर बाहर नहीं आता, वैसे ही संत तो ब्रह्म का साक्षात्कार करने से माया से निकल आते हैं किन्तु असंत माया के आसक्ति में ही मर जाते हैं निरासक्त नहीं होते ।
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बीज१ वारि माँहिं अबुझ, अन्य वह्नी२ बुझ जाँहिं ।
ज्यो रज्जब तारू अतिर, दीसे लग जल माँहिं ॥५९॥
जैसे अन्य अग्नि२ तो जल में पड़ने से बुझ जाते हैं, किन्तु बिजली१ तो जल में भी नहीं बुझती, वैसे ही जो बाह्य चिन्ह माला तिलकादि से युक्त संसार-जल से तैरने वाले दिखाई देते हैं वे तो संसार को नहीं तैर पाते और जो उक्त चिन्हों से रहित सासंरिक कार्य करते हुये भी मन से परमात्मा के सच्चै भक्त हैं वे अनायास ही संसार-सागर को तैर कर ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं ।
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तेरू१ अणतेरू२ पडैं, शक्ति३ सु सलिता हेर४ ।
उभय अभ्यासै अंभ५ में, पै तिरण६ बूडण फेर७ ॥६०॥
देख४ नदी में तैरने वाला१ और तैरने न जानने वाला दोनों पड़ते हैं, जब दोनों ही जल५ में से बाहर निकलने का अभ्यास करते हैं, किन्तु उनके अभ्यास में फर्क७ रह जाता है, तैराक१ निकल६ आता है, अतैराक२ डूब जाता है, वैसे ही ज्ञानी संत और अज्ञानी दोनों मायिक३ कार्यों में पड़ते हैं, तब संत तो ज्ञान बल से निकलकर ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं किन्तु अज्ञानी निकलने का प्रयत्न करने पर भी नहीं निकल सकते, माया की आसक्ति-रज्जु में ही फँसे रहते हैं ।
(क्रमशः)
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