गुरुवार, 31 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवै ।*
*मतवाला माता रहै, यों दादू जीवै ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*अविश्वास का अर्थ है कि मनुष्य स्वयं को समग्र के साथ एक नहीं मानता, इसी से संदेह जन्मता है।*
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यदि मनुष्य स्वयं को समग्र के साथ एक समझे तो फिर कैसा अविश्वास? अस्तित्व जहां भी ले जाएगा, वही शुभ है। न अपनी मर्जी से मनुष्य आया है, न अपनी मर्जी से कहीं जा रहा है; न जन्म का पता है कि क्यों जन्मे? न मृत्यु का पता है कि क्यों मरेंगे? जन्म लेने से पहले न तो किसी ने पूछा है कि क्यों जन्म लेना है? न कोई पूंछता है कि क्यों मरोगे? सब हो रहा है। मनुष्य व्यर्थ ही स्वयं को बीच में ले आता है। जिससे जीवन निकला है, उसी में मनुष्य विसर्जित होगा। जिसने जीवन दिया है, उस पर अविश्वास क्यों?
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जिससे इस सुंदर जीवन का आविर्भाव हुआ है, उस स्रोत पर अविश्वास कैसा? विश्चास का अर्थ है कि मनुष्य स्वयं को अलग नहीं मानता, इस अस्तित्व के साथ स्वयं को एक समझता है। *'ऐसे विश्वास- रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।'* अभी हो जा सुखी, इसी क्षण हो जा सुखी। *'मैं एक विशुद्ध बोध हूं ऐसी निश्चय-रूपी अग्नि से अज्ञान-रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हुआ सुखी हो।'* अभी हो जा दुःख के पार ! इस सत्य को - कि मैं विशुद्ध बोध हूं - जान लेने के बाद दुःख विसर्जित हो जाता है।
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दुःख और पीड़ा बाहर से नहीं आती, दुःख जो मनुष्य झेलता है; मनुष्य का ही निर्मित किया हुआ है। जितना बड़ा अहंकार उतनी ही ज्यादा पीड़ा होगी। अहंकार घाव है। अहंकारी को सुखी करना असम्भव है। सुख आता है ये जानते ही कि मैं क्या हूं? एक बूंद हूं सागर में ! सागर ही है, मेरा होना क्या है?
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जिस मनुष्य को अपने न होने की प्रतीति सघन होने लगती है,उतने ही सुख के अम्बार उस पर बरसने लगते हैं। मैं कर्ता नहीं हूं, इसे अमृत कहा गया है। अहंकार विष है। जिस क्षण मनुष्य ने जान लिया कि अहंकार है ही नहीं,केवल परमात्मा ही है; ये सारा विस्तार उसी एक का है, मैं तो मात्र उसकी एक किरण भर हूं - उसी क्षण मनुष्य अमृत हो गया। परमात्मा के साथ मनुष्य अमृत है। और जिसे उसने अपना होना मान रखा है, उसके साथ मनुष्य मरणधर्मा है। परमात्मा के साथ होते ही हार असम्भव है। मनुष्य व्यर्थ संघर्ष क्यों करता है? व्यर्थ ऊधम और उत्पात क्यों मचाता है?
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*'मैं कर्ता नहीं हूं ऐसे विश्वास-रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।'* प्रश्न था, कैसे सुखी हों? कैसे मुक्ति मिले? केवल दृष्टि का बदलाव, सारा उपद्रव दृष्टि का ही है। दुखी है मनुष्य तो गलत दृष्टि आधार है। सुखी है तो ठीक दृष्टि आधार है।
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'..................विश्वास -रूपी अमृत को पीकर सुखी हो।'
विश्वास शब्द समझने जैसा है।

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