बुधवार, 16 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू देखौं निज पीव को, दूसर देखौं नांहि ।*
*सबै दिसा सौं सोधि करि, पाया घट ही मांहि ॥* 
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साभार ~ oshosatyarthi.wordpress.com

जैसे ही भीतर के ज्ञान की किरण जगती है, दीपक प्रज्ज्वलित होता है, मनुष्य अपनी शक्तियों का स्वामी हो जाता है। और ये ही मनुष्य के ज्ञान का कारण है, ज्ञान अंतिम घटना है। ज्ञान का अर्थ है : देखने की क्षमता, तब जीवन में कोई दुःख नहीं है; तब जीवन में केवल आनंद है। नींद के कारण मनुष्य का स्वप्न दुखद हो गया है। होश किसी दुःख को नहीं जानता, होश केवल आनंद को जानता है।
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**'स्वशक्ति का प्रचय अर्थात सतत विलास ही उनका विश्व है।'**
ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति सतत अंतरविलास में है, सतत महासुख में है। स्वशक्ति का प्रचय ! उसके भीतर उसकी स्वयं की शक्ति अनंत सुखों को जन्म देती है। प्रतिपल वहां सुख का झरना बहता रहता है।
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मनुष्य के भीतर प्रतिपल सुख के अनंत स्रोत प्रवाहित हो रहे हैं, लेकिन बेहोशी के कारण मनुष्य उन्हें जान नहीं पाता। ध्यान रहे, धर्म त्याग नहीं है, धर्म परम् विलास है। पूरा जीवन आनंद का महोत्सव है। जीवन दुःख को नहीं जानता। दुःख मनुष्य की कल्पना है। दुःख को मनुष्य ने जन्म दिया है, क्योंकि अंधा मनुष्य इसके अतिरिक्त और कुछ भी कर नहीं सकता; वो जहां जाएगा, वहीं टकराएगा। लेकिन अंधा ये सोच सकता है कि सारी दुनिया उससे टकराये जा रही है। कोई किसी से क्यों टकराएगा? अंधा व्यक्ति स्वयं ही टकराता है, आँख वाला किसी से नहीं टकराता। ये सूत्र समझना आवश्यक है।
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**'स्वशक्ति का प्रचय अर्थात सतत विलास ही उनका विश्व है।'**
ये ज्ञान की स्थिति जब आ जाती है, तो प्रतिपल आनंद फलित होता रहता है। तब अमृत की वर्षा होती है और दुःख की एक भी किरण प्रवेश नहीं कर पाती। मनुष्य के भीतर महासुख का सागर है। उसकी ही तलाश मनुष्य कर रहा है। लेकिन बाहर खोज रहा है, खोज की दिशा गलत है। आत्मज्ञानी मनुष्य को दिशा प्रदान करता है। आत्मज्ञानी, यदि मनुष्य उसकी मानने को तैयार हो; तो दिशा-ज्ञान देने को तत्पर है। लेकिन मनुष्य यदि आत्मज्ञानी का ये दान स्वीकार करने को राजी न हो, तो आत्मज्ञानी भी कुछ न कर सकेगा।
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**'और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है।'**
ये अनुभव से समझ में आने वाला सूत्र है। लेकिन फिर भी समझाने का प्रयास यहां किया गया है। जैसे ही कोई स्वयं को जान लेता है, वैसे ही एक अनूठी शक्ति-इस जगत में सबसे महान शक्ति-इससे बड़ा कोई और चमत्कार नहीं है-उसे उपलब्ध हो जाती है। वह जब चाहे तब अस्तित्व में आ जाये और जब चाहे शून्य में खो जाए। जैसे साधारण मनुष्य जागता और सोता है। लेकिन वह भी स्वैच्छिक नहीं है। सुबह नींद खुल जाने पर मनुष्य पुनः सो नहीं सकता और रात नींद आ जाने पर स्वेच्छा से जाग नहीं सकता।
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आत्मज्ञानी स्वेच्छा से शून्य में जाता है और पूर्ण में आता है, वह परतंत्र नहीं है।
उसकी इच्छा पर निर्भर है, जैसा चाहे; वैसा करे। सभी ज्ञानियों ने दो तरह के आत्मज्ञानी माने हैं। मनुष्य जब उस परम स्थिति में आता है, तब या तो उसके प्राणों में दूसरे की सहायता करना शेष रह जाता है; या फिर ये भी शेष नहीं रहता, तब वह अस्तित्व में लीन हो जायेगा। जिनमे दूसरे को सहायता करने की करुणा शेष रह गई है, उन्हें बोधिसत्व या तीर्थंकर कहा जाता है।
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अंत में दो में से एक-करुणा या प्रज्ञा-शेष रहते हैं। प्रज्ञा का अर्थ है : ज्ञान और करुणा का अर्थ है दया। दो तरह के मनुष्य होते हैं - एक जिनमे प्रज्ञा प्रभावी है और दूसरे वे जिनमे करुणा प्रभावी होती है। जिनमे प्रज्ञा प्रभावी है वे अस्तित्व में लीन हो जाते हैं, उन्हें गुरु नहीं बनाया जा सकता। जिनमे करुणा प्रभावी है, वे गुरु बन सकते हैं। वे तीर्थंकर बन सकते हैं। बोधिसत्व बन सकते हैं।

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