बुधवार, 16 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि ।* 
*मूरति मन मांहैं बसै, सांसैं सांस संभारि ॥* 
*सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ ।*
*सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥*
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साभार ~ oshosatyarthi.wordpress.com

**मनुष्य को शायद ये ज्ञात न हो कि हीरे का इतना मूल्य क्यों है?**
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हीरे के मूल्यवान होने के पीछे मनुष्य की शाश्वत की खोज है। इस जगत में हीरा सबसे ज्यादा थिर है। सब चीजें बदल जाती है, हीरे बगैर बदले हुए एक सा बना रहता है; करोड़ों-2 वर्षों में भी हीरा क्षीण नहीं होता। इस प्रतिपल बदलते संसार में, हीरा न बदलने वाले का प्रतीक है। इसीलिये हीरे का इतना मूल्य है। अन्यथा है तो वो पत्धर ही, मूल्य है उसके शाश्वत ठहराव का। हीरा होना मनुष्य का स्वभाव है। और समस्त साधना मिट्टी की जम गई पर्तों को अलग करने की है। पर्तें मिट्टी की हैं, इसीलिये अलग करना बेहद कठिन नहीं है। पर्तें मिट्टी की हैं और शाश्वत पर हैं; परिवर्तनशील की हैं, इसलिए बहुत कठिनाई नहीं है।
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मन्त्र इन पर्तों को हटाने की विधि है। मन को जो समाप्त कर दे, वह है मन्त्र। मन जब नहीं रहता तो चेतना और शरीर के मध्य जो सेतु है, वह टूट जाता है। मन ही चेतना को शरीर से जोड़े हुए है। यदि बीच का सेतु, सम्बन्ध टूट जाए; तो शरीर अलग, और चेतना अलग हो जाती है। जिसने जान लिया स्वयं को शरीर से अलग और मन से शून्य, उसे कैवल्य उपलब्ध हो गया।
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इसलिए मन्त्र को समझ लेना जरूरी है। मन्त्र धीरज का प्रयोग है, इसलिए धैर्य रखना होगा। इसे पहले समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि मनुष्य पहले ही पर्याप्त परेशान है, और अधैर्य रखने पर मन्त्र एक नई परेशानी बन जाएगा। मनुष्य पहले ही विक्षिप्त है, मन्त्र से विक्षिप्तता टूट भी सकती है और बढ़ भी सकती है। मन पुराने सब धंधे जारी रख कर, एक नया धंधा और पकड़ ले सकता है।
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मन्त्र के साथ धैर्य चाहिए। जैसे दवा को एक निश्चित मात्रा में लेना होता है। दवा की अतिरिक्त खुराक से रोग जल्दी नहीं ठीक होता, अधिकांशतः तो रोग बढ़ जाता है।दवा को मात्रा में ही लेना होता है। मन्त्र की मात्रा बेहद सूक्ष्म है और बड़े धैर्य की जरूरत है। फल की जल्दी आकांक्षा न करे मनुष्य, वह परम् फल है; इसलिए जल्दी आएगा भी नहीं। जन्म-2 भी लग सकते हैं। ये समझ लेने जैसा है कि जितना अधिक धैर्य होगा, फल उतनी ही जल्दी आएगा। अधैर्य होने पर देर ही होगी।

पहली पर्त शरीर है, इसलिए मंत्र का प्रथम प्रयोग शरीर से प्रारम्भ करना जरूरी है।क्योंकि मनुष्य अभी शरीर पर है, इलाज वहीं से शुरू करना होगा। यात्रा का प्रारम्भ, मनुष्य जहां खड़ा है; वहीं से करना उचित है। कहीं और से यात्रा प्रारम्भ करना महज एक स्वप्न है। अभी मन्त्र का प्रारम्भ शरीर से शुरू करना ही उचित है। एकांत में किसी भी एकदम खाली कमरे में सुखासन में बैठ जाए मनुष्य, ध्यान रहे शरीर को कष्ट नहीं देना है। पूरी आराम की व्यवस्था कर लें।
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फिर जोर-2 से ॐ, ॐ; जितने जोर से कर सके, क्योंकि शरीर का उपयोग करना है। पूरा शरीर निमज्जित हो जाए ॐ में, सम्पूर्ण जीवन ऊर्जा ॐ में लगा देना है। जैसे इसी पर जीवन - मरण टिका हुआ है। अपने को पूरा दांव पर लगा देना है ! जैसे सिंहनाद होने लगे। इतनी जल्दी-2 ॐ कहना है कि दो ॐ के मध्य जगह न रहे। सारी शक्ति लगा देनी है। थोड़े ही दिनों पश्चात मनुष्य पायेगा कि पूरा कमरा ॐ से भर गया है।

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