शुक्रवार, 18 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(१३/१६) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*साहिब किया सो क्यों मिटै, सुन्दर शोभा रंग ।*
*दादू धोवैं बावरे, दिन दिन होइ सुरंग ॥*
================= 
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
.
आभे१ अम्बर२ शून्य३ ने, ओढे केती बार । 
बागों४ में बाहर खड़ी, रज्जब समझ विचार ॥१३॥ 
आकाश२ ने कितनी ही बार बादल१ रूप वस्त्र ओढे है फिर भी वह नग्न३ ही है, वैसे ही आत्मा वस्त्रों४ में रहने पर भी नग्न ही स्थित है, इसको आत्म विचार द्वारा समझो अर्थात स्थूल शरीर पहनता है आत्मा नहीं । ज्ञानी अपने को शरीर रूप नहीं मानता आत्मा रूप मानता है, अत: वह वस्त्र पहने हुवे भी नग्न ही है, उसके लिये वस्त्र त्याग वा ग्रहण समान ही है । 
रज्जब साधु सिरटा मक्कई, दश बागे तन धार । 
ब्रह्म भूमि रस पीजिये, मन कन निपज अपार ॥१४॥ 
संत मक्की के सिट्टे के समान हैं, मक्की के सिट्टे पर दसों पड़दे होते हैं, तो भी वह भूमी का जल पान करता है, उसी से उसमें अनेक दानें उत्पन्न होते हैं, वैसे ही साधु के शरीर पर दश वस्त्र हो और यह ब्रह्म-चिन्तन -रस का पान करे, तो उसका मन भी महान् होगा, अत: माया में रह कर माया से मुक्त ब्रह्म चिन्तन से ही होता है । 
वसन१ तजे दुर्वासना, अशन२ तजे उर आस । 
यूं भूखे नंगे रहैं, जन रज्जब निज दास ॥१५॥ 
भगवान् के निजी भक्त संत दुर्वासना रूप वस्त्रों१ को और हृदय की विषयात्रा रूप भोजन२ को त्यागते हैं, इस प्रकार ही वे भूखे नंगे रहते हैं, आन्तर साधना में वस्त्र-भोजन का त्याग महत्त्व नहीं रखता । 
रिधि सिधि में न्यारे रहैं, भुगता१ भगवंत हाथ । 
रज्जब मुक्ते राम मिल, सब संपति तिन साथ ॥१६॥ 
ज्ञानी संत ऋद्धि सिद्धियों में रहकर भी अलग ही रहते हैं और भगवान् के कृपा रूप हाथ से प्राप्त प्रसाद के भोक्ता१ होते हैं, सभी सम्पति उनके साथ होने पर भी वे राम से मिल जाने के कारण उनके विचारों से मुक्त ही रहते हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें