卐 सत्यराम सा 卐
*बिन श्रवणहुँ सब कुछ सुनै, बिन नैनहुँ सब देखै ।*
*बिन रसना मुख सब कुछ बोलै, यहु दादू अचरज पेखै ॥*
======================
साभार ~ oshosatyarthi.wordpress.co m
न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।
पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥ १८- ४७
(अष्टावक्र: महागीता)
शंकारहित और युक्त मनवाला पुरुष यम नियमादि मुक्तिकारी योग को आग्रह के साथ ग्रहण नहीं करता है, लेकिन वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।
जिसको स्वयं में शाश्वत होने होने की शंका न रही, जिसको अपने आत्मा होने में शंका न रही, जिसने जरा सा इस भीतर के अंतर्जगत का स्वाद लिया, जो थोड़ा सा भी जागा, विवेक में, ध्यान में, समाधि में। शकारहित जो निशंक हुआ। निशंकों युक्तमानस:। और जिसका मन युक्त हुआ।
.
ये दो बातें समझना। एक तो हमें अपने होने पर ही शंका है। भला हम कितना ही कहते हों कि मैं आत्मा हूं कि मेरी कोई मृत्यु नहीं, परन्तु हमें इस पर भरोसा नहीं। हम कहते अवश्य हैं; कहते भी हैं, मान भी लेना चाहते हैं। भरोसा करना चाहते हैं, भरोसा है नहीं। भरोसा करना चाहते हैं, क्योंकि मृत्यु से भय लगता है। मृत्यु से घबड़ाहट होती है। तो हम मान लेते हैं, आत्मा अमर है। जहां हम पढ़ते हैं किसी शास्त्र में, आत्मा अमर है, हिम्मत आती है कि ठीक; होनी चाहिए आत्मा अमर। परन्तु निशंक नहीं है यह बात, इसमें सन्देह है अभी भी।
.
तो पहली तो बात है, शंकारहित, निःशंको। यह हमारा अनुभव होना चाहिए, उपनिषद की सिखावन से काम न चलेगा। दोहराएं लाख कृष्ण, कृष्ण, इससे कुछ काम न चलेगा। कृष्ण कुछ भी कहें, इससे क्या होगा? जब तक हमारे भीतर का कृष्ण जाग कर प्रमाण न दे। जब तक हम न कह सके कि हां, ऐसा मेरा भी अनुभव है। जब तक हम न कह सके कि ऐसा मैं भी कहता हूं अपने अनुभव के आधार पर, अपनी प्रतीति के, अपने साक्षात के आधार पर कि मेरे भीतर जो है, वह शाश्वत है।
.
परन्तु तब हम यह भी पाएंगे कि जो शाश्वत है वह हम नहीं हैं। हम तो अहंकार हैं। हमें तो मिटना ही होगा। अज्ञानता को तो जाना ही होगा, वह बचने वाली नहीं है। हमारा शरीर जाएगा, हमारा मन जाएगा। इन दोनों के पार कोई हमारे भीतर छिपा है, जिससे हमारी अभी तक पहचान भी नहीं हुई। वही बचेगा। और वह हमसे बिलकुल अन्यथा है, हमसे बिलकुल भिन्न है। हमे उसकी झलक भी नहीं मिली है। हमने सपने में भी उसका स्वप्न नहीं देखा है।
.
शंकारहित कैसे होएंगे? कैसे यह निशंक अवस्था होगी? कठिन तो नहीं होनी चाहिए यह बात, क्योंकि जो भीतर ही है उसको जानना अगर इतना कठिन है तो फिर और क्या जानना सरल होगा? कठिन तो नहीं होनी चाहिए। हमने संभवत: भीतर जाने का उपाय ही नहीं किया। संभवत: हम कभी घड़ी भर को बैठते ही नहीं। घड़ी भर को मन की तरंगों को शांत होने नहीं देते। जलाए रहते हैं मन में आग, ईंधन डालते रहते हैं। दौड़ाए रखते हैं, मन के चाक को। चलाए रखते हैं, मन के चाक को। कभी अवसर नहीं देते कि चाक रुके और हम कील को पहचान ले। वह जो कील है, जिस पर चाक घूमता है, वह नहीं घूमती, वास्तविक वस्तु तो कील है, उस पर ही चाक घूमता है। कील केंद्र है, चाक परिधि है।
.
हमारे भीतर भी कील है जिस पर जीवन का चाक घूमता है, जीवन चक्र चलता। जीवन चक्र के बहुत से आरे हैं, वे ही हमारी वासनाएं हैं। परन्तु सब के भीतर छिपी हुई एक कील है, जो अचल, कभी चली नहीं; अकंप, कभी कंपी नहीं। वही कील हमारी आत्मा है, और वही हमारा स्वरूप है।
.
जरा बैठो कभी। थोड़ा समय निकालो अपने लिए भी। सब समय औरों में मत गंवा दो। धन में कुछ लगता है, काम में कुछ लगता है, पत्नी बच्चों में कुछ लगता है; संशय नहीं, लगने दो। कुछ तो अपने लिए बचा लो। घड़ी भर अपने लिए बचा लो। तेईस घंटे दे दो संसार को, एक घंटा अपने लिए बचा लो। और एक घंटा केवल एक ही काम करो कि आंख बंद करके चाक को ठहरने दो। मत दो इसको सहारा। हमारे सहारे चलता है। हम ईंधन देते हैं तो चलता है। हम हाथ खींच लेंगे, रुकने लगेगा। संभवत: थोड़ी देर चलेगा, पुरानी गति के कारण, परन्तु फिर धीरे धीरे रुकेगा भी।
.
दो चार महीने यदि हम केवल एक घंटा बैठते ही गए बैठते ही गए, शीघ्रता भी नहीं करे, धैर्य रखना होगा। केवल एक घंटा प्रतिदिन बैठते गए, आंख बंद करके बैठ गए दीवार से टिक कर और कुछ भी न किया, कुछ भी न किया, दो चार छह महीने के बाद हम अचानक पाएंगे, चाक अपने आप ठहरने लगा। और साल छह महीने कोई ज्यादा समय नहीं हैं, इस अनंतकाल की यात्रा में? कुछ भी तो नहीं। क्षण भर भी नहीं। साल छह महीने में किसी दिन हम पाएंगे कि चाक ठहरा है, और कील पहचान में आ गई। उसी दिन निशंक हुए।
.
उसी दिन जान लिया जो जानने योग्य है, पहचान लिया जो पहचानने योग्य है। फिर चलाओ खूब चाक। अब कील भूल नहीं सकती। अब चलते चाक में भी पता रहेगा। अब दौड़ो, भागो, यात्राएं करो संसारों की; और हम जानते रहेंगे कि भीतर कील ठहरी हुई है। उसी कील के अनुभव से हमारे भीतर संयुक्तता आती है, योग आता है, जिसने अपनी कील नहीं देखी वह तो भीड़ है। एक मन कुछ कहता है, दूसरा मन कुछ कहता है, तीसरा मन कुछ कहता है।
.
जब तक हमने अपनी कील नहीं देखी, जब तक हमने एक को नहीं देखा है अपने भीतर तब तक हम अनेक के साथ उलझे रहेंगे। मन अनेक है, आत्मा एक है। उस एक को जान कर ही व्यक्ति संयुक्त होता है।
**न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।**
ऐसा जो युक्त मनवाला पुरुष है, शंकारहित, यम नियमादि मुक्तिकारी योग को आग्रह के साथ नहीं ग्रहण करता।
.
यह ध्यान रहे। ऐसे व्यक्ति के जीवन में यम नियम भी हम पाएंगे, परन्तु आग्रह न पाएंगे। चेष्टा करके यम नियम नहीं साधता। यम नियम सधते हैं सहज, बिना किसी आग्रह के। कोई हठ नहीं, कोई बलपूर्वक नहीं।
**पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥**
वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, खाता हुआ सुखपूर्वक रहता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें