卐 सत्यराम सा 卐
*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
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साभार ~ राजेश वशिष्ठ
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥ १८- ४०
(अष्टावक्र: महागीता)
भावार्थ :अज्ञानी को आत्म-साक्षात्कार कैसे हो सकता है, जब वह दृश्य पदार्थों के आश्रय को स्वीकार करता है। ज्ञानी पुरुष तो वे हैं, जो दृश्य पदार्थों को न देखते हुए अपने अविनाशी स्वरूप को ही देखते हैं।
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आत्मा का दर्शन उसे कहा है, जो दृश्य का अवलंबन करता है? धीर पुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं, और अविनाशी आत्मा को देखते है।
दर्शन का अर्थ सोच-विचार नहीं होता। दर्शन का वैसा अर्थ नहीं है, जैसा संसार की धारणा हैं, दर्शन का अर्थ है, उसे देख लेना जो सब देख रहा है। दृश्य को देखना दर्शन नहीं है, द्रष्टा को देख लेना दर्शन है।
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**क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते।**
जो दृश्य का अवलंबन करता है। जो दृश्य के पीछे भागा चल रहा है, वह अपने से दूर निकलता जाएगा। व्यर्थ का समय नस्ट करने का कार्य है ये। दृश्य की तलाश में आत्मा का दर्शन कहाँ? अष्टावक्र कहते हैं, दृश्य का जो अवलंबन करता है वह कभी अपने को न पा सकेगा। और जिसने अपने को न पाया वह सब भी पा ले तो उस पाने का सार क्या है? दृश्य के पीछे जो भागता रहेगा, दृश्य तो मिलेंगे ही नहीं और द्रष्टा खो जाएगा।
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अष्टावक्र कहते हैं, **धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥**
धीरपुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं, अविनाशी आत्मा को देखते हैं। और जिसने इस अविनाशी, अव्ड्ग आत्मा को देख लिया उसने दृश्यों का दृश्य देख लिया। जो पाने योग्य था, पा लिया। जो सार था, उसके हाथ आ गया; जो असार था, उसने छोड़ दिया। हमारे भीतर अमृत विराजमान है। जिसके लिए हम छटपटा रहे हैं वह हमारे भीतर छिपा पड़ा है। जिस धन को हम खोजने निकले हैं, उस धन का अंबार हमारे भीतर लगा है। संपत्ति भीतर है, बाहर तो विपत्ति है। संपदा भीतर है, बाहर विपदा है।
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समाधि और समाधान भीतर हैं। बाहर तो केवल समस्याओं का जाल फैलता चला जाता है। एक समस्या में से दस समस्याओं के अंकुर निकल आते हैं। एक उलझन को सुलझाने चलो, दस उलझनें खड़ी हो जाती है। फिर इनको ही सुलझाते सुलझाते जीवन बीतता। एक दिन मृत्यु, द्वार पर खड़ी आ जाती। और तब एक क्षण का भी समय नहीं मिलता हम लाख सिर पटकें कि थोड़ा और, समय मुझे मिल जाए, थोड़ा सा भी समय मिल जाए चौबीस घंटे का समय मिल: जाए जरा ध्यान कर लूं सदा टालते रहे परन्तु फिर एक क्षण भी नहीं मिलता।
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निरपवाद रूप से यदि कोई बात कही जा सकती है तो एक है, जिन्होंने बाहर खोजा, कभी नहीं पाया। एक भी अपवाद नहीं हुआ इसका। आज तक मनुष्य जाति में एक भी मनुष्य ने ऐसा नहीं कहा कि मैंने बाहर खोजा और पा लिया। और अब तक जिसने भी पाया उसने भीतर खोज कर पाया। वह भी निरपवाद। जिसने भी कहा, मुझे मिला, उसने कहा भीतर मिला।
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ये सत्य के दो पहलू हैं, एक ही सत्य के। बाहर कभी किसी को नहीं मिला। अनंत-अनंत लोगों ने खोजा। और जिन थोड़े से लोगों को मिला उन्हें भीतर खोज कर मिला। और क्या प्रमाण चाहते हो? धर्म निरपवाद विज्ञान है, इस अर्थ में। एक भी बार इसमें चूक नहीं हुई। फिर भी हम बाहर भागते हैं। फिर भी हम भीतर नहीं जाते।
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शाश्वत हमारे भीतर पड़ा है। हम अमरबेल हैं। कितने बार जन्मे; कितने बार मरे, फिर भी मिटे नहीं। मिटना हमारा स्वभाव नहीं। हम कभी व्यतीत नहीं होते। हमारा कभी व्गड् नहीं होता। अमृत, हम कितने ही भागते रहे हो जन्मों-जन्मों में, फिर भी हमारी संपदा अक्षुण्ण हमारे भीतर पड़ी है। जिस दिन जागेंगे उसी दिन स्वामी हो जायेंगे। जागते ही स्वामी और सम्राट हो जायेंगे। घोषणा भर करनी है।
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अष्टावक्र की महिमा यही है कि वे हमसे यही कह रहे हैं, कि कुछ करना नहीं है, केवल जरा आंख का कोण बदलना है। देखना है और घोषणा करनी है। हमारे भीतर से सिंहनाद हो जाएगा।
जय सनातन।
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