शनिवार, 19 मई 2018

= ९८ =


卐 सत्यराम सा 卐
*मन चित मनसा आत्मा, सहज सुरति ता मांहि ।*
*दादू पंचों पूर ले, जहँ धरती अंबर नांहि ॥* 
===========================
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब-मन्तरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥ १८- ४४
(अष्टावक्र: महागीता) 
भावार्थ : मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि कुछ आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती। 
मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है। 
====================
मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि आलंबन के बिना नहीं रहती। मुक्त पुरुष की बुद्धि सदा निष्काम और निरालंब रहती है। 
.
मन बिना आलंबन के नहीं रहता। मन को कोई सहारा चाहिए। मन अपने बल खड़ा नहीं हो सकता। मन को उधार शक्ति चाहिए, किसी और की शक्ति। मन शोषक है। इसलिए जब तक हम सहारे से जियेंगे, मन से जियेंगे। जिस दिन हम बेसहारा जियेंगे उसी दिन हम मन के बाहर हो जायेंगे। और यह बात ध्यान रहे कि मन इतना कुशल है, उसने मंदिर के भी सहारे बना लिए हैं। पूजा, पाठ, यज्ञ, हवन, पंडित, पुरोहित, शास्त्र। परमात्मा भी हमारे लिए एक आलंबन है। उसके सहारे भी हम मन को ही चलाते हैं। हम मन की कामनाओं के लिए परमात्मा का भी सहारा मांगते हैं कि हे प्रभु, अब इस नये कार्य में काम लगा रहे हैं, कृपा रखना। शुभ मुहूर्त में लगाते हैं, ज्योतिषी से पूछ कर चलते हैं कि प्रभु किस क्षण में सबसे ज्यादा आशीर्वाद बरसाएगा, उसी क्षण शुरू करें। मुहूर्त में करें।
.
हम परमात्मा का भी सहारा अपने ही लिए ले रहे हैं। ध्यान रहे जब तक हम परमात्मा को सहारा बनाने की कोशिश कर रहे हैं, हम परमात्मा से दूर रहेंगे। जिस दिन हमने सब सहारे छोड़ दिए उस दिन परमात्मा हमारा सहारा है। बेसहारा जो हो गया, परमात्मा उसका सहारा है। निर्बल के बल राम। जिसने सारी बल की दौड़ छोड़ दी, जिसने स्वीकार कर लिया कि मैं निर्बल हूं असहाय हूं और कहीं कोई सहारा नहीं है। सब सहारे झूठे हैं और सब सहारे मन की कल्पनाएं हैं। ऐसी असहाय अवस्था में जो खड़ा हो जाता है उसे इस अस्तित्व का सहारा मिल जाता है, जो परमात्मा हैं।
.
मुक्ति का अर्थ ही है, निरालंब हो जाना, निराधार हो जाना। मुक्ति का अर्थ ही है, अब मैं कोई सहारा न खोजूंगा। 
.
और जैसे ही सहारे हटने लगते हैं वैसे ही मन गिरने लगता है। इधर सहारे गए उधर मन गया। मन सभी सहारों का जोड़ है, संचित रूप है। सारे सहारे हट जाते हैं, बस मन का तंबू गिर जाता है। मन के तंबू के गिर जाने पर जो शेष रह जाता है, बिना किसी सहारे के जो शेष रह जाता है, वही है शाश्वत; वही है अमृत; वही है हमारा सच्चिदानंद। वही है हमारे भीतर छिपा हुआ परमात्मा, विराट। परात्पर ब्रह्म हमारे भीतर विद्यमान है।
.
इसको ऐसे समझें कि हमारा आंगन है, दीवार उठा रखी है। दीवार के कारण आकाश छोटा हो गया आंगन में। दीवार गिरा दो, आकाश विराट हो जाता है। सारा आकाश हमारा हो जाता है। मन आंगन की तरह है। छोटी-छोटी दीवारें चुन ली हैं, उसके कारण आकाश छोटा हो गया है। गिरा दें दीवारें। हटा दे दीवारें। तोड़ दे परिधि। गिरा दें परिभाषाएं। तत्क्षण हमारा आकाश विराट हो जाता है। तत्क्षण सारा आकाश हमारा है। इस आकाश के उपलब्ध हो जाने का नाम ही मोक्ष है।
.
ये सारे श्लोक मुक्ति के श्लोक हैं। एक-एक श्लोक मुक्ति की एक-एक अपूर्व कुंजी है। इन पर खूब ध्यान करना। इनको बार-बार सोचना, विचारना, ध्यान करना। इन पर बार-बार मनन करना। किसी दिन, किसी क्षण में इनका प्रकाश हमारे भीतर प्रवेश हो जाएगा। उसी क्षण खुल जाते हैं द्वार अनंत के, अज्ञात के। उसी क्षण हम मेजबान हो जाते, प्रभु हमारा मेहमान हो जाता है। बनो आतिथेय। अतिथि आने को तैयार है।
जय सनातन।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें