शनिवार, 19 मई 2018

= ९७ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सहज सरोवर आतमा, हंसा करै कलोल ।*
*सुख सागर सूभर भर्या, मुक्ताहल मन मोल ॥* 
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क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥ १८- ४१
(अष्टावक्र: महागीता) 
भावार्थ : जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है? आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है। 
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जो व्यक्ति हठपूर्वक चित्त का निरोध करता है, उस अज्ञानी को चित्त का निरोध कहां है? स्वयं में रमण करनेवाले धीरपुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है। 
**यह श्लोक अत्यंत आधारभूत है। ध्यानपूर्वक समझना।**
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जो हठपूर्वक चित्त का निरोध करता है, जो जबरदस्ती चित्त का निरोध करता है, उस अज्ञानी का चित्त कभी भी निरोध को उपलब्ध नहीं होता। हठपूर्वक यदि हम चित्त का निरोध करेंगे तो निरोध करेगा कौन? वही चित्त। मन ही तो मन से लड़ता, और चित्त ही तो चित्त का निरोध करता। चित्त के द्वारा तो हम चित्त से ही लड़ेंगे। हम जो भी कृत करेंगे, वो मात्र मन से ही करेंगे। परन्तु उस से मन के पार, परब्रह्म को नही जान पाएंगे। 
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मन के पार के अनुभव के लिए एक ही उपाय है, कृत्य का अभाव। करो मत। करना न हो। मन को कृत्य चाहिए। कृत्य मन का भोजन है। कुछ करने को हो तो मन जीता है। कोई भी कृत हो, वो मन का सहारा हैं, जब तक सहारा है तब तक मन रहेगा। सहारा मन को ही चाहिए। आत्मा को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं है। 
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मन लंगड़ा है, इसको बैसाखियां चाहिए। हम बैसाखी किस रंग की चुनते हैं, इससे कुछ भेद नहीं। मन को सदा कुछ कृत्य चाहिए। कोई भी कृत्य दे दो, हर कृत्य की नाव पर मन यात्रा करेगा और संसार में प्रवेश कर जाएगा। यदि हम मन को कृत की नाव देना समाप्त करदे, तो धीरे धीरे मन विधा होजायेगा, और तब जो शेष रहेगा, वही तो हैं परब्रह्म। 
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एक सावधानी रखनी होगी, जब हम कुछ भी न कर रहे हों, तो मन सुझाव देता है, की शयन करे, परन्तु ध्यान रहे, शयन भी एक कृत हैं, जिसलिये सोना भी नही हैं। बिना कृत किये बैठना संभव नही, बिना कृत के बैठना तो केवल ध्यानी के लिए संभव है। और जिसको ध्यान आता है वह तो काम करते हुए भी खाली होता है। और जिसको ध्यान नहीं आता वह खाली बैठा भी कुछ न कुछ कृत कर रहा होता है। और जिसको ध्यान आता है वह काम करते हुए भी कृत रहित होता है।
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कड़वा वचन ये उपवास करने वाले, जप तप करने वाले, शीर्षासन करने वाले, धूनी लगाए बैठे हुए लोग, यह कौन कर रहा है सब? यह मन ही कर रहा है। और जहाँ तक मन हैं, वहां मात्र संसार हैं, परब्रह्म नहीं। कृत रहित होना चैतन्य का स्वभाव है। मन को कृत का सहारा चाहिए।
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**क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।**
कितना ही करो, कुछ भी करो, मूढ व्यक्ति चित्त के निरोध को उपलब्ध नहीं होता। इसलिए नहीं कि वह चित्त का निरोध नहीं करता, चित्त का निरोध करता है इसीलिए मुक्त नहीं होता। फिर मुक्ति का उपाय क्या है? 
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**स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥**
स्वयं में रमण करनेवाले धीरपुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है। चित्त का निरोध करना नहीं होता। आत्मरमण, आत्मरस में विभोरता, चित्त निरुद्ध हो जाता है। चित्त का निरोध सहज हो जाता है, अपने से हो जाता है। चित्त का निरोध परिणाम है।
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अष्टावक्र कह रहे हैं? कितना ही निरोध करो, निरोध से निरोध नहीं होता। कितना ही साधो, साधने से कुछ नहीं सधता। चेष्टा से कुछ हाथ नहीं आता। स्वयं में रमण करनेवाले धीर पुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है। यह तो उसी को होता है जो केवल समझ, इशारे से रूपांतरित हो जाता है, बोधमात्र से, प्रज्ञा मात्र से, और अपने में रमण करने लगता है। और तब एक निरोध पैदा होता है, जो अकृत्रिम है, जो स्वाभाविक है, जो सहज है; जो हमारी छाया की तरह हमारे पीछे आता।
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इस वचन को ऐसे समझो, निरोध करनेवाला निषेधात्मक है, वह लड़ता है। स्वभाव का अर्थ है, बिना लड़े अपने भीतर के आनंद में डूब जाना। वह आनंद ऐसा प्रीतिकर है कि उस आनंद को जान लेने के पश्च्यात मन का कोई प्रलोभन काम नहीं करता। अब जिसके हाथ में हीरे जवाहरात आ गए वह कंकड़ पत्थर के लोभ में थोड़े ही पड़ेगा। और जिसने अमृत चख लिया, अब वह विष के धोखे में थोड़े ही आएगा। 
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और जिसने परम सौंदर्य जान लिया, अब वह हड्डी, मांस, मज्जा के सौंदर्य में थोड़े ही उलझेगा। और जो अपने परम पद पर विराजमान हो गया, तो अब छोटी-मोटी कुर्सियों के लिए थोड़े ही लड़ेगा। और जिसने राज्यों का राज्य पा लिया, साम्राज्य पा लिया स्वयं का, अब वह हमारे पदों के लिए थोड़े ही आकांक्षा करेगा, हमारे धन की थोड़े ही चाह करेगा। इति सिद्धम। 
जय सनातन।

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