#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सेवक की रक्षा करै, सेवक की प्रतिपाल ।*
*सेवग की वाहर चढै, दादू दीन दयाल ॥*
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साभार ~ Main Toh Vrindavan Ko Jaau Sakhi,mere Naina Lage Bihari Se''
"ब्रज रस धारा"
महाराज अम्बरीष सप्तद्वीपवती पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट थे. श्रीमद्भागवत के नवें स्कंध में सूर्यवंश के वर्णन करते समय श्री शुकदेव जी ने महाराज अम्बरीष जी के पावन चरित्र का वर्णन किया है. महाराज अम्बरीष भगवान के ऐकान्तिक भक्त थे.
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उन्होंने अपनी सारी इन्द्रियों को भक्ति के विभिन्न अंगों के पालन में नियुक्त कर रखा था. वे मन के द्वारा श्रीकृष्ण की लीलाओं का चिंतन करते थे. वाणी के द्वारा भगवान का नाम कीर्तन एवं लीला कथाओं का वर्णन करते थे. हाथों के द्वारा भगवान के श्रीमन्दिर का मार्जन करते. कानों के द्वारा भगवान की कथाओं का श्रवण करते. नेत्रों से श्रीमुकुन्द के श्रीमन्दिरों का दर्शन करते. घ्राणेन्द्रियों से भगवद चरणों में अर्पित माल्य, चन्दन आदि निर्माल्य की सुगन्ध ग्रहण करते, रसना के द्वारा भगवदर्पित प्रसाद का सेवन करते तथा पैरों से भगवद धाम, तुलसी एवं श्रीमन्दिर आदि की परिक्रमा करते थे तथा एकादशी आदि हरिवासर तिथियों का पालन भी करते थे.
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**जब दुर्वासा जी महाराज अम्बरीष जी की शरण में आये**
एक समय मथुरा में उन्होंने इस स्थान पर वास करते हुए द्वादशी प्रधान एकादशी–व्रत का निर्जला उपवास किया एवं दूसरे दिन सूर्योदय के बाद पारण के लिए थोड़ा सा समय बचा हुआ था. उन्होंने पूजा, अर्चना आदि के पश्चात ज्योंहि भगवान को निवेदित अन्न के द्वारा पारण कराना चाहा, उसी समय महर्षि दुर्वासा वहाँ उपस्थित हुए. महाराज ने आदरपूर्वक उन्हें भी व्रत का पारण करने के लिए निमन्त्रित किया.
महर्षि ने महाराज से कहा– आपका निमन्त्रण स्वीकार है, किन्तु मेरे अभी कुछ नित्य कृत्य बाकी हैं. यमुना तट पर स्नान कर अपने कृत्य समाप्त कर शीघ्र लौट आऊँगा, आप प्रतीक्षा करें. ऐसा कहकर वे यमुना की ओर चले गये.
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महर्षि दुर्वासा को लौटने में कुछ विलम्ब हो गया. इधर पारण समय बीता जा रहा था. महाराज अम्बरीष ने ब्राह्मणों एवं सभासदों से परामर्श कर व्रत की रक्षा के लिए भगवद–चरणामृत की एक बूँद ग्रहण कर ली. जब महर्षि दुर्वासा लौटे तो यह जानकर बड़े क्रोधित हुए कि महाराज ने उनकी प्रतीक्षा किये बिना ही व्रत का पारण कर लिया है. उन्होंने अपनी जटा उखाड़ ली और उसे जलती हुई कृत्या राक्षसी का रूप देकर अम्बरीष को भस्म करना चाहा. महाराज अम्बरीष दीनतापूर्वक हाथ जोड़े निर्भींक रूप से खड़े रहे. किन्तु, भक्तों के रक्षक सुदर्शन चक्र ने तत्क्षणात प्रकट होकर कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया और महर्षि की ओर लपके.
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महर्षि दुर्वासा सिर पर पैर रखकर बड़ी तेजी से भु:, भुव:, स्व: आदि लोकों में इधर–उधर प्राणों को बचाने के लिए भागे. ब्रह्मलोक एवं शिवलोक में भी गये, किन्तु किसी ने भी उनकी रक्षा नहीं की. सर्वत्र ही उन्होंने भयंकर चक्र सुदर्शन को अपना पीछा करते देखा. अनन्तर वैकुण्ठलोक में नारायण के पास पहुँचकर त्राहि–त्राहि पुकारने लगे. त्राहि ! त्राहि ! रक्ष माम् !
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भगवान श्रीनारायण ने कहा– मैं भक्तों के पराधीन हूँ. मैं उनका हृदय हूँ और वे मेरे हृदय हैं. मेरी शरण्य अम्बरीष जिन्होंने घर–बार, स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, सम्पत्ति आदि सब कुछ मेरे लिए छोड़ रक्खा है उनके पास लौटकर क्षमा माँगे. उनकी प्रार्थना से ही सुदर्शन चक्र शान्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं.
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परम भागवत अम्बरीष महाराज एक वर्ष तक दुर्वासा के कल्याण की कामना करते हुए वहीं प्रतीक्षा कर में खड़े रहे. वैकुण्ठ से लौटकर दुर्वासा ने अस्त–व्यस्त होकर महाराज अम्बरीष से अपने प्राणों की भीख माँगी. अम्बरीष जी ने प्रार्थना कर सुदर्शन चक्र को शान्त किया तथा महर्षि को आदर पूर्वक विविध प्रकार के सुस्वादु अन्न–व्यजंनों से सन्तुष्ट किया. दुर्वासाजी महाराज अम्बरीष की महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये.
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उन्होंने कहा– अहो ! आज मैंने भगवान अनन्तदेव के भक्तों की अभूतपूर्व महिमा की उपलब्धि की. मुझ जैसे अपराधी की भी उन्होंने सदा मंगल की ही कामना की. यह केवल भगवद् भक्तों के लिए ही सम्भव है.
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आज भी यह स्थान मथुरा जी में अम्बरीष टीला के नाम से है. भक्त अम्बरीष जी की महिमा का आज भी साक्षी दे रहा है. पास ही यमुना के तट पर चक्रतीर्थ है, जहाँ महाराज अम्बरीष ने स्तव–स्तुतियों के द्वारा चक्र को शान्त किया था.
**श्याम सुन्दर गोस्वामी**
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