बुधवार, 23 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(२९-३२) =

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।*
*दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥*
================= 
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
.
रज्जब तन में मन मुक्त रहे, बरतणि१ बँधे सु नाँहिं । 
पै चम दृष्टि देखै उन्हें, माया काया माँहिं ॥२९॥ 
ज्ञानी संत शरीर में रहते हुये भी मन के द्वारा शरीराध्यास से मुक्त रहते हैं, किसी प्रकार के व्यवहार१ में नहीं बँधते किन्तु, चर्म चक्षुओं से ही देखने वाले अज्ञानी प्राणी उन्हें माया तथा काया बँधे हुये से देखते हैं । 
रज्जब काढे देह दधि, मन माखन सु विलोय । 
छाजन भोजन छाछ में, उभय न एकठ१ होय ॥३०॥ 
दही का मंथन करके मख्खन निकालने पर उसे छाछ में ही डाल देते हैं, किन्तु वह और छाछ दोनों एकमेक१ रूप से नहीं मिलते मक्खन अलग ही रहता है, वैसे ही विचार द्वारा देहाध्यास से मन को निकाल देने पर वह शरीर के भोजन-वस्त्रादि संपादन कार्यो में लगने पर भी देह को आत्मा मान कर उसके साथ एकमेक नहीं होता । 
रज्जब माया में मुकत, साँई साधु दोय । 
यथा शिष्य गुरु ज्ञान के, गति मति एकहि होय ॥३१॥ 
जैसे गुरु का ज्ञान ग्रहण करने पर शिष्य की व्यवहार रूप गति और बुद्धि गुरु की गति मति के साथ एक हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी संत ब्रह्म रूप हो जाता है, अत: जैसे ब्रह्म माया में रहकर भी माया से मुक्त है वैसे ही ज्ञानी भी माया में रहकर माया से मुक्त है ।
बाहर रहु भावे वरुण१ मध्य, पत्थर भिदे२ न तेह । 
त्यों रज्जब माया मुकत, नाँहिं शक्ति३ सनेह ॥३२॥ 
पत्थर जल१ में रहे चाहे बाहर रहे, वह तो दोनों स्थानों में समान भाव से ही रहता है, जल में रहने पर भी जल उसमें नहीं घुसता२, वैसे ही संत माया में रहकर भी माया से मुक्त ही रहते हैं, उनमें माया३ सम्बन्धी प्रेम नहीं रहता ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें