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卐 सत्यराम सा 卐
*परआतम सौं आत्मा, ज्यूँ हंस सरोवर मांहि ।*
*हिलि मिलि खेलैं पीव सौं, दादू दूसर नांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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सुरति सीप संयम गह्या, देही दरिया माँहिं ।
यूं रज्जब मिश्रित१ मुकत, माँही माँही नाँहिं ॥४५॥
सीप समुद्र में मिली हुई१ रहकर भी समुद्र का जल नहीं पान करने का तथा स्वाति बिन्दु पान करने का संयम ग्रहण करती है, इसी से समुद्र में रहकर भी नहीं रहने के समान है, वैसे ही संत मायिक कार्यों देहादि में रहते हैं, किन्तु उनकी वृत्ति देहादि राग में न लगने का तथा ब्रह्म चिन्तन में लगने का संयम ग्रहण करती है, इसी से शरीर में रहकर भी न रहने के समान मुक्त रहते हैं ।
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सारंग१ सीप गृहस्थ का, शून्य२ सलिल सौं सीर३ ।
त्यों रज्जब तीजे सती, द्वै द्वै निपजै बीर४ ॥४६॥
चातक१ पक्षी और सीप का आकाश२ के जल स्वाति बिन्दु में ही साझा३ है, वैसे ही तीसरे सत्य ब्रह्म को चिन्तन द्वारा धारण करने वाले गृहस्थ सती संत का ब्रह्म में ही साझा है, हे भाई४ ! उक्त दो दो के मिलने से अर्थात चातक और स्वाति बिन्दू के मिलने से प्यास निवृत रूप तृप्ति, सीप-स्वाति बिन्दु मिलने से मोती, ब्रह्म-सती मिलने से मुक्ति उत्पन्न होती है ।
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नर नलिनी१ द्वै द्वै गुणें, शक्ति सलिल सम गेह ।
परमारथ स्वारथ इनहूं, सांई सूर सनेह ॥४७॥
संत कमलिनी१ के समिन है, जैसे कमलिनी स्वार्थ तथा परमार्थ रूप दो गुणों से युक्त है, वैसे ही संत हैं । कमलिनी अपने पोषण रूप स्वार्थ के लिये तो जल में रहती है, किन्तु उसका परमार्थिक प्रेम सूर्य से है, वैसे ही संत शरीर रक्षा रूप स्वार्थ से तो घर की माया में रहते हैं, किन्तु उनका पारमार्थिक प्रेम परब्रह्म से रहता है ।
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इक गृही अरु कृत्य१ करहिं, माया मध्य उदास ।
जन रज्जब रामहिं मिले, कोटि कुटंतर२ दास३ ॥४८॥
एक गृहस्थ है और कर्तव्य कर्म१ करते हुये माया में रहता है, किन्तु माया से उदास रहता है, वह मुक्त ही है, उक्त प्रकार के कोटिन भक्त३ घर में२ रहते हुये भी निरंजन राम को प्राप्त हुये हैं ।
(क्रमशः)
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