सोमवार, 28 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७/५-६) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
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*= चित्त विषयकप्रश्न =*
*बहिर्चित्त कैसैं पहिचानैं ।*
*अंतर्चित कवन विधि जानैं ॥*
*परम चित्त कैसैं करी कहिये ।*
*सुन्दर सद्गुरुबिन नहिं लहिये ॥५॥*
(प्रसंगवश शिष्य चित्त के विषय में प्रश्न करता है -) हे गुरुदेव ! बाह्य चित्त को कैसे पहचाना जा सकता है और अन्तश्चित्त को कैसे ? इसी तरह परम चित्त की किस अवस्था को कहते हैं ? यह बताने की कृपा करें क्योंकि यह गूढ विषय बिना सद्गुरु की कृपा से समझ में नहीं आ सकता ॥५॥
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*= उत्तर =*
*बहिर्चित्त चितवै अनेक ।*
*अंतर चित्त चिंतवन एकं ॥*
*परम चित्त चितवन नहिं कोई ।*
*चितवन करत ब्रह्ममय होई ॥६॥*
नाना प्रकार के बाह्य संसार के संकल्प-विकल्पात्मक चित्त को “बाह्यचित्त’’ कहते है, तत्व का चिन्तन मनन करनेवाली चित्ता-वस्था को ‘अन्ताश्चित्त’ कहते हैं और ‘परमचित्त’ से चिन्तन तो कोई विरला ही कर सकता है, क्योंकि यह चित्त की वह अवस्था है जब ज्ञानी ब्रह्ममय होकर इस चित्त के सहारे अनवरत उस अद्वैत समाधि में लीन रहता है ॥६॥
(क्रमशः)

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