शनिवार, 12 मई 2018

= ८४ =


卐 सत्यराम सा 卐
*जो कुछ बेद कुरान थैं, अगम अगोचर बात ।*
*सो अनुभै साचा कहै, यहु दादू अकह कहात ॥* 
*दादू जब घट अनुभै उपजै, तब किया कर्म का नाश ।*
*भय अरु भ्रम भागे सबै, पूरण ब्रह्म प्रकाश ॥* 
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साभार ~ Archana Maheshwari

तुम कहते हो, मैं अपनी वासनाओं से हारा हूं । वासनाओं की व्यर्थता का बोध होने पर भी वे जाती क्यों नहीं हैं ? वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें हुआ है ? या कि सुन लिया है, या कि संत-महात्माओं ने जो बकवास छेड़ रखी है वही तुम्हारे - भीतर शूं-शूं कर रही है ? जिस दिन वासनाओं की व्यर्थता का बोध तुम्हें होगा, उस दिन न जीत है न हार है । बोध के साथ ही वासनाओं का अतिक्रमण है । बोध के साथ तो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है, फिर बचता क्या है ? 
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बोध यानी बुद्धत्व । और वासनाओं का बोध, बस आ गई पूर्णिमा की रात, आ गई वह रात जब गौतम सिद्धार्थ बुद्ध बने ! तुम्हारे जीवन में भी बुद्धत्वता का, भगवत्ता का आनंद बरस उठेगा, अमृत झलक उठेगा । लेकिन बोध तुम्हें नहीं है । इसे बोध न कहो । सुनी-सुनाई बातें हैं । तुम्हारे भीतर घुस गई हैं, दोहर रही हैं, ग्रामोफोन रिकार्ड की तरह दोहर रही हैं । सदियों से कहा जा रहा है, सुना जा रहा है कि - वासनाएं गलत हैं, उनसे जीत करनी है, उनको हराना है । मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं वासनाओं को जीतना है ।
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मैं उनसे कहता हूं, जीत हो सकती है अगर तुम यह जीत की भावना छोड़ दो । वे कहते हैं, अच्छी बात है । तो हम जीत की भावना छोड़ देंगे, फिर तो जीत होगी न ?
यह कैसी भावना छोड़ना हुआ ? जीत की आकांक्षा ऐसी गहन हो गई है, इस बात तक के लिए बेचारे राजी हैं कि चलो जीत की आकांक्षा भी छोड़ देते हैं, मगर जीत होगी न ? जीत होनी ही चाहिए । अगर जीत पक्की हो, अगर गारंटी हो, तो हम यह भी कर लेंगे ---- यह वासना भी छोड़ देंगे कि वासना को जीतना है । और मैं तुमसे कहूं, यह बडी़ से बडी़ वासना है ---- वासनाओं को जीतने की वासना । और वासनाएं तो बहुत छोटी-छोटी हैं; यह वासना तो बडी़ महत वासना है । इस सब झंझट में न पडो़ । जो भी भीतर है, जो भी बाहर है, स्वीकार करो । निंदा नहीं । 
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अभी बोध कहां ! बोध को ही जगाने का तो मैं उपाय कर रहा हूं । क्रमशः बोध को जगाओ । पहले शरीर के साक्षी बनो । तुम जी रहे हो --- यंत्रवत । पहले शरीर के प्रति सजग होना शुरू करो चलो तो जानते हुए, होशपूर्वक । बैठो तो जानते हुए, होशपूर्वक । लेटो तो जानते हुए, होशपूर्वक । इतनी गहनता को लाना है होश में कि एक ऐसी घडी़ भी आ जाए कि रात करवट भी बदलो, तो भी होशपूर्वक । 
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और अंततः सोए रहो तब भी तुम्हें यह होश रहे कि शरीर सोया है, मैं जागा हूं । जिस दिन यह घटना घट जाती है उस दिन एक पडा़व पूरा हुआ, एक तिहाई यात्रा पूरी हो गई । फिर दूसरा प्रयोग मन पर करना है । फिर मन के विचार, कामनाएं, इच्छाएं, एषणाएं स्मृतियां, कल्पनाएं, सपने, इनको देखना है । यह मन की सारी कामनाओं का जाल तभी संभव है देखना, जब पहले शरीर की स्थूल प्रक्रियाओं पर तुम्हारी जागृति जम गई हो । तब सूक्ष्म पर उतरा जा सकता है । एक-एक कदम बढ़ना होगा । जो शरीर पर सफल हो गया वह मन पर भी सफल हो जाएगा; उसके हाथ में राज लग गया ।
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और जब तुम्हारे मन पर तुम्हारा होश गहन हो जायेगा तो तुम चकित होओगे । जब शरीर पर होश गहन होता है तो शरीर में एक कमनीयता, एक कोमलता, एक सौंदर्य, एक प्रसाद उतर आता है; एक संगीत, एक लयबध्दता, एक छंद छा जाता है । शरीर के उठने-बैठने में एक अदभुत लालित्य आ जाता है, सारी भाव-भंगिमा में एक भगवत्ता छा जाती है ---- एक गहन शांति, एक मौन, एक उत्फुल्लता । रोएं-रोएं में एक उत्सव ! और जब मन पर बोध गहन हो जाता है तो वासनाएं, विचार अपने आप विदा हो जाते हैं, लड़ना नहीं पड़ता । जो लडा़ वह तो हारा । जो जागा वह जीता । इस सूत्र को खूब याद कर लेना । जो लडा़ वह हारा । पराजय तुम्हारी गलत प्रक्रिया का परिणाम है । जो मन को जाग कर देखेगा उसका मन विदा हो जाता है ।
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तुम जागे कि मन गया । जिस मात्रा में जागे, उस मात्रा में मन गया तुम अगर दस प्रतिशत जागे हो तो नब्बे प्रतिशत मन होगा । तुम गर नब्बे प्रतिशत जाग गए तो दस प्रतिशत मन होगा । और तुम अगर निन्यानबे प्रतिशत जाग गए तो एक प्रतिशत मन होगा । और तुम अगर सौ प्रतिशत जाग गए तो मन शून्य प्रतिशत हो जाएगा । और तब एक अपूर्व घटना घटती है । जैसे शरीर में एक प्रसाद छा जाता है, ऐसे ही मन में एक अपूर्व आह्वाद, अकारण आनंद --- कोई कारण नहीं, कोई वजह नहीं, कोई हेतु नहीं, कोई लक्ष्य नहीं --- बस अकारण झरने फूटने लगते हैं, आनंद की रसधार बहने लगती है ।
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और जब मन में यह घटना घट जाए तो फिर तीसरा कदम बाकी रह गया , जो सर्वाधिक सूक्ष्म है --- वह है हृदय की भावनाओं के प्रति सजगता । वह सबसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हमारा जगत है । भाव विचार से भी गहरे हैं । और भाव विचार से भी नाजुक हैं । फिर आखिरी प्रयोग करना है । अपनी भावनाओं को देखना है । विचार पर जो जीत गया वह भावनाओं पर भी जीत जाएगा । राज तो वही है, कीमिया तो वही है, कला तो वही है; सिर्फ अब गहराई बढा़ए जाना है । तैरना आ गया तो अब क्या फर्क पड़ता है उथले में तैरे कि गहरे में तैरे । 
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भावना का जगत सर्वाधिक गहरा है। जब भावनाओं के प्रति तुम जागोगे, जिस मात्रा में जागोगे उस मात्रा में भावनाएं भी विदा हो जाएंगी । और जब सारी भावनाएं विदा हो जाती हैं तो उस अपूर्व घटना की घडी़ आ गई जब ऋषियों ने कहा है : रसो वै सः ! रस आखिरी परिभाषा है परमात्मा की । रस बह उठता है । रस अदभुत शब्द है । दुनिया की किसी भाषा में वैसा कोई शब्द नहीं । परमात्मा रस रुप है । और ये तीन कदम हैं; इन तीन कदम के बाद चौथा प्रसाद है । चौथा भी है, लेकिन वह तुम्हारा कदम नहीं है । तीन तुम उठाओ, चौथा कदम परमात्मा उठाता है । 
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उस चौथे को हमने कहा है ---- तुरीय, समाधि । तुमने तीन पूरे कर लिए, तुम अधिकारी हो गए, पात्र हो गए चौथे को पाने के । चौथा तुम नहीं उठा सकते । चौथा तो परमात्मा उठाएगा । यह पूरा अस्तित्व तुम्हारे सहयोग में खडा़ हो जाता है । और जब चौथा कदम भी उठ जाता है और समाधि सघन हो जाती है, समाधि के मेघ घिर जाते हैं, आ गया आषाढ़ का महीना, होने लगी रिमझिम ---- तब जीवन में जीत है । उसको तुम कह सकते हो जिन अवस्था, विजेता की अवस्था । उसके पहले तो हार ही हार है ।
लड़ो मत, जागो !
"ओशो" ~ **सांच सांच सो सांच**

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