卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यों रसना मुख एक है, ऐसे होंहि अनेक ।*
*तो रस पीवै शेष ज्यों, यों मुख मीठा एक ॥*
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साभार ~ Vijay Divya Jyoti
**क्या वास्तव में प्रेम अपरिभाषित है?**
जिस प्रकार जब तक नदी सागर में मिल नहीं जाती है तब तक इठलाती-बलखाती हुई चलती है, लेकिन ज्यों ही सागर में मिलती है नदी के मन के सारे प्रश्न स्वत: गिर जाते हैं और वह शांत हो जाती है। जब तक जीव परमात्मा से अलग रहता है विविध योनियों में भटकता रहता है तब तक उसकी ऐंठन बनी रहती है, लेकिन ज्यों ही परमात्मा की निकटता उसे प्राप्त होती है वह शांत हो जाता है। उसे छलांग लगाने की न कोई आवश्यकता है और न कोई संभावना है। यह जो सारा संसार दृश्यमान हो रहा है, वह माया के कारण विभिन्न रूपों में दिख रहा है। माया में रहते हुए माया से अनासक्त होने की कला ही भक्ति है।
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विज्ञान में भले ही कहा जाता हो कि कारण के बगैर कार्य नहीं होता, लेकिन किसी मां से यह नहीं पूछा जाता कि तुमने किस विधि से अपने पुत्र को प्यार किया। पति-पत्नी के बीच जो दांपत्य-मैत्री है, उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। दो प्रेमियों के प्रेम को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। ठीक उसी प्रकार मीरा से नहीं पूछा जा सकता कि आपने किस विधि से कृष्ण को स्वीकार किया। परम से प्रेम ही भक्ति है। यदि दूध की उपमा प्रेम से करें तो उस दूध से निकला हुआ नवनीत(मक्खन) ही भक्ति है। वास्तव में देखा जाए तो मोह से प्रेम, और प्रेम से भक्ति तक की यात्रा अपरिभाषित है क्योंकि मूल में प्रेम है और प्रेम अपरिभाषित है।
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मनोवैज्ञानिक फ्रायड का कहना है कि जब तक मनुष्य बुद्धिमान बना रहता है, वह समर्पण नहीं कर सकता और भक्ति समर्पण बगैर घटित नहीं होती। प्रेम में तर्क-वितर्क नहीं किया जाता है। दरअसल जहां केवल बुद्धि का राज होता है, वहां समर्पण नहीं होता। किसी भक्त से यह पूछना गलत है कि तुमने प्रभु से कैसे और किस विधि से प्रेम किया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि जब कोई भक्त प्रभु से मिलता है तो उसे किसी विधि का ज्ञान नहीं होता। और मज़े की बात यह है कि प्रेम की अंतिम परिणति भक्ति है और भक्ति के बगैर सारे प्रेम अधूरे हैं, अपरिपक्व हैं।
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