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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू अवगुण छाड़ै गुण गहै, सोई शिरोमणि साध ।*
*गुण औगुण तैं रहित है, सो निज ब्रह्म अगाध ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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जिते१ चित्र चंदवे२ महल, तिते३ छांह में नाँहिं ।
त्यों माया सब साधु पर, सो व४ नहीं उर माँहिं ॥५॥
जितने१ चित्र मंडप२ वा महल में होते हैं उतने३ उनकी छाया में नहीं होते, वैसे ही जो माया ज्ञानी संत के शरीर पर दिखाई देती है, सो वह४ उनके हृदय में नहीं होती है ।
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रज्जब रिधि१ थोड़ी बहुत, साधु मग्न न होय ।
ज्यों बादल सूखे सजल, बीज२ बुझे नहिं जोय ॥६॥
माया१ चाहे थोड़ी हो वा बहुत ज्ञानी संत उसके हर्ष-शोक में निमग्न नहीं होता, देखो बादल जल रहित होता हो वा सूखा हो बिजली२ उससे नहीं बुझती ।
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सोखे पोखे सूर ज्यों, संकट आवे नाँहिं ।
त्यों रज्जब साधु जुदे, माया काया माँहिं ॥७॥
सूर्य जल सुखाकर शोषण करते हैं और जल वर्षाकर पोषण भी करते हैं, दोनों ही क्रिया में उन्हें कोई कष्ट नहीं होता, वैसे ही संतों द्वारा शरीरादि का शोषण-पोषण होता है, किन्तु उन्हें दोनों ही स्थितियों में कष्ट नहीं होता, वे माया और काया से अलग ब्रह्म स्वरूप में ही स्थित रहते हैं अत: शरीर माया में रहते हुये भी वे माया तथा काया से मुक्त ही रहते हैं ।
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रज्जब सूर न मैला जल गहे, तज नाहिं निर्मल होय ।
बरतणी१ बरतै साधु यूं, रंग न पलटैं कोय ॥८॥
सूर्य मैले जल को ग्रहण करके मैले नहीं होते और उसे त्यागकर निर्मल नहीं होते, वे तो सदा एक रस ही रहते हैं, ऐसे ही व्यवहार१ से सन्तजन सांसारिक वस्तुओं को वर्तते हैं, उनसे मैले वा निर्मल नहीं होते, कारण, वे तो अपन निष्ठा रूप रंग को कभी बदलते ही नहीं ।
(क्रमशः)
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