शुक्रवार, 11 मई 2018

= ८१ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू निबहै त्यों चले, धीरैं धीरज माँहिं ।*
*परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नाँहिं ॥* 
===========================
मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥ १८- ३७
(अष्टावक्र: महागीता) 
भावार्थ : अज्ञानी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्रह्म होना चाहता है। ज्ञानी पुरुष इच्छा न करने पर भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है। 
======================
धीर पुरुष नहीं चाहता हुआ भी निश्चित ही परब्रह्मस्वरूप को भजने वाला होता है। और धीर पुरुष, बोध को उपलब्ध व्यक्ति, जिसका सिंहनाद हो गया, जिसने अपने वास्तविक चेहरे को पहचान लिया, वह न चाहता हुआ भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है। 
.
ब्रह्म होने की आकांक्षा ही फिर न होने देगी। हम जो हैं, होना नहीं है, केवल जागना है। इसलिए धार्मिक व्यक्ति वह हैं, जो उसे देख लेता है, जो है। जो होना चाहता है, यह बात ही मिथ्या है। कुछ होना, यह धार्मिक मनुष्य का लक्षण नहीं है, जो है, उसे जान लेना। होने की दौड़ संसार है, और जो है, उसके प्रति जागना धर्म है।
.
न चाहते हुए भी। जो जाग्रत, थोड़ा सा भी जाग्रत है, जरा सी भी किरण जागने की जिसके भीतर उतरी है वह निश्चय ही परब्रह्मस्वरूप का भजने वाला हो जाता है। फिर स्वरूपभाक् शब्द को समझना चाहिए। परब्रह्मस्वरूप को भजने वाला। भजन शब्द बड़ा अनूठा है। भजन का अर्थ होता है, अविच्छिन्न जो बहे। अविच्छिन्न जो बहे, अखंड जो बहे।
.
परमात्मा का भजन तो अखंड तभी हो सकता है, जब हमे यह याद आ जाए कि मैं परमात्मा हूं। बस, फिर अखंड हो गया। फिर सतत हो गया। फिर जागते, उठते, बैठते, सोते भी हम जानते हैं, कि मैं परमात्मा हूं।
.
वास्तविक धार्मिक व्यक्ति शब्दों से नहीं होता, उसकी जीवन धारा से होता हैं। उसकी जीवन धारा में एक सातत्य है, एक अनिर्वचनीय शांति है, आनंद की एक धारा है, प्रभु की मौजूदगी है। वह बोले तो प्रभु की बात बोलता; न बोले तो उसके मौन में भी प्रभु विधमान होता हैं। हम उसे जागते भी पाएंगे तो प्रभु को पाएंगे। हम उसे सोते भी पाएंगे तो भी प्रभु को पाएंगे। आधार रहित और दुराग्रही पुरुष संसार के पोषण करनेवाले हैं। इस अनर्थ के मूल संसार का मूलोच्छेद ज्ञानियों द्वारा किया गया है।
.
ज्ञानी वही है जो स्वरूप को उपलब्ध हो गया, जिसने अपने भीतर की नैसर्गिक प्रकृति को पा लिया। जैसे कोयल प्राकृतिक है और गुलाब। और जैसे कमल प्राकृतिक है और यह पक्षियों की चहचहाहट। जिस दिन हम भी अपने स्वरूप में हो जाते हैं, उस दिन ज्ञान।
.
ज्ञानी अपने स्वभाव की भाषा बोलता है। वही उसका भजन है। वह फिर जंगल का हुआ। वह फिर परमात्मा का हुआ,वह फिर प्रकृति का हुआ। अब अभ्यास गया सब। गए पाखंड गए, मुखौटे गए, समझौते गए। अब नहीं ओढ़ता ऊपर की बातें। अब तो भीतर को बहने देता।
जय सनातन।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें