卐 सत्यराम सा 卐
*दादू देखु दयालु को, रोक रह्या सब ठौर ।*
*घट घट मेरा सांइयाँ, तूँ जनि जानै और ॥*
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Height of hinduism
‘भगवान’ शब्द का अर्थ समझो
ईसाइयों और मुसलमानों के कारण भगवान शब्द का अर्थ बड़ा ओछा हो गया, उसका अर्थ हो गया : जिसने दुनिया को बनाया निश्चित ही जनक ने दुनिया को नहीं बनाया है तो अष्टावक्र का भगवान का यह अर्थ तो हो ही नहीं सकता है कि जिसने दुनिया को बनाया भारत में भगवान के बड़े अनूठे अर्थ थे, उस शब्द की महिमा को समझो...
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उसका अर्थ होता है : जिसे चुकाया न जा सके; जिसकी संभावना को परिपूर्ण रूप से कभी वास्तविक न बनाया जासके क्योंकि जिस दिन संभावना पूरी की पूरी चुक गई उस दिन बीज कंकड़ हो गया, फिर इसके बाद कुछ नहीं हो सकता है जिसमें विकास और विकास सदा संभव है, वही भगवान है....
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**तू भाग्यवान है।**
भविष्य है तेरा
विकास है तेरा
संभावना है तुझमें छिपी
तू बीज है, कंकड़ नहीं
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एक और शब्द है ‘ईश्वर’ वह शब्द भी बड़ा अदभुत है, अंग्रेजी के शब्द गॉड में वह मजा नहीं है, वह खूबी नहीं है जो ईश्वर में या भगवान में है, अंग्रेजी का शब्द गॉड बहुत गरीब है, ईश्वर का अर्थ होता है ऐश्वर्य है जिसका, आनंद है जिसका, सच्चिदानंद की संपदा है जिसकी ऐश्वर्य से बनता है ईश्वर, जो महा ऐश्वर्य को लिए छिपा बैठा है तुम्हारे भीतर, कि प्रगट होगा तो उसके साम्राज्य की कोई सीमा न होगी, उसका साम्राज्य विराट है, ऐसे तुम ईश्वर हो ऐश्वर्य तुम्हारा स्वभाव है...
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भिखारी तुम बन गये यह तुम्हारी भूल है, ऐश्वर्य तुम्हारा स्वभाव है, भिखमंगे तुम बन गये हो, क्योंकि अतीत से तुमने संबंध जोड़ लिया है; भगवान तुम हो जाओगे अगर भविष्य से संबंध जोड़ लो सतत गतिमान, सतत प्रवाहमान जो है, वही भगवान है अगर तुम बढ़ रहे हो तो भगवान है, अगर रुक गये तो तुम पत्थर हो गये...
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लेकिन तुमने भगवान की पत्थर की मूर्तियां बना रखी हैं, पत्थर की भूल कर भगवान की मूर्ति मत बनाना, क्योंकि पत्थर में बहाव तो बिलकुल नहीं है हिंदू बेहतर थे; नदी को पूज लेते थे, सूरज को पूज लेते थे—उसमें कहीं ज्यादा भगवत्ता है, वृक्ष को पूज लेते थे, उसमें कहीं ज्यादा भगवत्ता है...
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तुम जरा फर्क समझना.. वृक्ष कम—से—कम बढ़ता तो है, गतिमान तो है... नदी बहती तो है, प्रवाहमान तो है, सूरज निकलता तो है, उगता तो है, बढ़ता तो है, वृद्धिमान तो है, तुमने बना ली संगमर्मर की मूर्ति; वह मुर्दा है, उसमें कहीं कोई गति नहीं है, तुमने कंकड़ों की मूर्तियां बना लीं, बीज की मूर्ति बनानी थी..
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जब पश्चिम से पहली दफा लोग आये और उन्होंने हिंदुओं को देखा कि वृक्षों की पूजा कर रहे हैं, उन्होंने कहा कि अरे, बड़े अविकसित असभ्य, उन्हें समझ में नहीं आ सका, हिंदुओं को समझने के लिए बड़ी गहराई चाहिए, क्योंकि हिंदू हजारों साल से जीवन की आत्यंतिक गहराई में डुबकी लगाते रहे हैं...
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ओशो
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