卐 सत्यराम सा 卐
*दादू बंझ बियाई आत्मा, उपज्या आनन्द भाव ।*
*सहज शील संतोष सत, प्रेम मगन मन राव ॥*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com
ध्यान रहे ! आत्मकेंद्रित व्यक्ति के पास ही स्वेच्छा है, साधारण मनुष्य के पास कोई स्वेच्छा नहीं है।
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जब स्वयं का होना नहीं ज्ञात है, तब स्वेच्छा कैसे होगी? मनुष्य कहता है कि अपनी स्वेच्छा से कर रहा हूं, लेकिन ये झूठ है; किसी वासना के दबाव में मनुष्य ऐसा करता है। स्वेच्छा क्या है मनुष्य के पास? स्वेच्छा तब है, जब कोई अपमान भी करे तो भीतर क्रोध की लहर भी न उठे। हो सकता है कि मनुष्य क्रोध प्रकट न करे, क्रोध को दबा ले; लेकिन क्रोध तो अन्तस् में उठ ही जाएगा।
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स्वेच्छा तब है जब कोई अपमान करे और मनुष्य ऐसे रहे जैसे अपमान किया ही नहीं गया। स्वेच्छा तब है, जब कोई प्रशंसा करे; मनुष्य ऐसे रहे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
तब मनुष्य अपना मालिक हुआ। और ऐसा जो स्वामित्व है, उसमे ही स्वेच्छा हो सकती है। मुक्त पुरुष किसी बंधन में नहीं होता। उसके अन्तस् में पहली बार स्वेच्छा का जन्म हुआ है, संकल्प का जन्म हुआ है।
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साधारण मनुष्य तो वासनाओं, आकांक्षाओं, इच्छाओं के दबाव में प्रवाहित होता है। निर्णय करने की एक ही स्थिति होती है - जब कोई मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है। आत्मज्ञान के पश्चात निर्णायक क्षमता जन्म लेती है। अब मनुष्य नियंता है।
**'और वह स्वेच्छा से स्थिति और लय करता है।'**
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