卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जल में गगन, गगन में जल है,*
*पुनि वै गगन निरालं ।*
*ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
'तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू कोई आश्रम वाला है और न आंख आदि इन्द्रियों का विषय है। असंग और निराकार तू समस्त विश्व का साक्षी है। ऐसा जान कर सुखी हो।' ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ये सब ऊपर के आरोपण हैं और समाज के खेल हैं। मनुष्य अपने सत्य और वास्तविक स्वरूप में ब्रह्म है। न तो ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है; न वैश्य है, न शूद्र है।
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और भी न तो मनुष्य किसी ब्रह्मचर्य आश्रम में है,न गृहस्थ आश्रम में है;न वानप्रस्थ आश्रम में और न संन्यास आश्रम में - मनुष्य इन सारे से गुजरने वाला द्रष्टा, साक्षी है। ये सत्य की घोषणा है। **'असंग और निराकार तू सबका, विश्व का साक्षी है - ऐसा जान कर सुखी हो।'** प्रश्न था - कैसे सुख होगा? कैसे बंधन - मुक्ति होगी? कैसे होगा ज्ञान?
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उत्तर है - अभी ही हो सकता है, क्षण भर भी देर करने की कोई आवश्यकता नहीं है; स्थगित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ये भविष्य में घटित नहीं होता। जब भी घटित होता है, अभी इसी क्षण घटित होता है। भविष्य है ही कहां? जब आता है अभी की तरह आता है। कभी पर छोड़ना मन की चालाकी है। मन हमेशा कहता है कि इतनी जल्दी कैसे हो सकता है? अभी के अतिरिक्त कोई और समय है ही नहीं। अभी है जीवन ! अभी है मुक्ति ! अभी है ज्ञान ! अभी ही सब हो सकता है।
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**'हे व्यापक, धर्म और अधर्म; सुख और दुःख मन के हैं: तेरे लिए नहीं हैं। तू न कर्ता है, न भोक्ता; तू तो सर्वदा मुक्त ही है।'**
मुक्ति मनुष्य का स्वभाव है। ज्ञान मनुष्य का स्वभाव है। परमात्मा हमारे जीवन का केंद्र है, हमारे जीवन की सुवास है। 'हे विभावान, हे विभूतिसंपन्न ! धर्म और अधर्म, सुख और दुःख मन के हैं। ये सब मन की ही तरंगें हैं। बुरा किया, अच्छा किया, पाप किया, पुण्य किया; मंदिर बनाया, दान दिया - ये सब मन की ही तरंगें हैं।
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**'तू तो सदा मुक्त है। तू सर्वदा मुक्त ही है।'**
मुक्ति कोई घटना नहीं है, जिसे अभी मनुष्य के द्वारा घटित होना है; मुक्ति मनुष्य के होने में ही घट चुकी है, मुक्ति है धातु जिससे ये सारा अस्तित्व बना है। ये उद्घोषणा मनुष्य समझ भर ले और क्रांति हो जाती है। समझने के अतिरिक्त और कुछ भी करना नहीं है। मनुष्य केवल विश्राम से सुन ले, भविष्य की चिंता छोड़कर केवल ठीक से सुन ले; समझ ले। श्रावक मुक्त हो सकता है, केवल सुनते-२; असाधु का अर्थ ही इतना है कि जो सुन कर मुक्त न हो सका, उसे कुछ करना पड़ा।
**अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि।**
अभी हो जा मुक्त ! इसी क्षण हो जा मुक्त ! कोई बाधा नहीं है, जहां है वहीं हो जा मुक्त। क्योंकि मुक्त मनुष्य है ही, जाग भर जाए और हो गया मुक्त।
**असंगोउसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।**
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