सोमवार, 28 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(४१-४४) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू साधन सब किया, जब उनमन लागा मन ।*
*दादू सुस्थिर आत्मा, यों जुग जुग जीवैं जन ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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ऋद्धि१ रहित अथवा सहित, नर निस्तारा२ नाँहिं । 
साक्षी शुकदेव जनक हैं, देखो दोन्यों ठाँहिं३ ॥४१॥ 
माया१ रहित वा सहित रहने से मनुष्य की मुक्ति२ नहीं होती, देखो इन दोनों स्थानों३ में शुकदेव मुनि तथा राजा जनक साक्षी हैं । शुकदेव माया रहित और जनक माया सहित रहकर मुक्त हुये हैं । 
जन पद पाया जनक ने, माया मध्य सु मुक्त । 
रज्जब कहै विदेह विरुद, साक्षी साधु सत्त ॥४२॥ 
जनक ने माया के मध्य रहकर भी मुक्त जनों का पद प्राप्त किया है, उसकी विदेहता का यर्थात यश इतिहास कहते हैं और संतजन साक्षी देते हैं । 
माया मध्य सु मुक्त का, भूत१ न जानैं भेव२ । 
रज्जब राजा जनक गुरु, शिष्य भया शुकदेव ॥४३॥ 
माया में रहकर मुक्त होने का रहस्य२ सांसारिक प्राणी१ नहीं जानते, साधक ही जानते हैं, इसीसे माया रहित साधक शुकदेव माया सहित राजा जनक को गुरु बनाकर उनके शिष्य हुये हैं । 
रज्जब बारि१ विभूति२ में, बारण३ मन गरकाब४ । 
नाक८ भाव ऊपरि द्रसे५, तो बूडा वद६हु न जाव७ ॥४४॥ 
जल१ में हाथी३ डूबा४ हुआ हो, किन्तु किंचित सूंड८ जल जल के ऊपर हो, तो वह डुबा हुआ नहीं कहा६ जाता७, वैसे ही संत का माया२ में डूबा हुआ दिखाई५ देता हो, किन्तु मन का भाव माया से ऊपर ब्रह्म में हो, तो वह डूबा हुआ नहीं कहा जाता ।
(क्रमशः)

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