शुक्रवार, 25 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(३३-३६) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।*
*दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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घर बाहर माया मुकत, जे शक्ति१ सुरति२ में नाँहिं । 
रज्जब रूखे चोपड्यों३, तेल न केशों माँहिं ॥३३॥ 
केशों को रूखा रखने पर वा तेल लगाने३ पर वे भीतर सम ही रहते है तेल उनमें नहीं घुसता, वैसे ही जिनकी वृत्ति२ में माया१ सम्बन्धी राग नहीं है, तो वह चाहे घर में रहे वा बाहर वन में रहे माया से मुक्त है ।
रज्जब एक विचार बल, माया मध्य सु मुक्ति१ ।
मिले अमिल ज्यों तेल जल, ऐसे साधु रु शक्ति ॥३४॥ 
जैसे तेल और जल मिलने पर भी बिना मिले से दिखाई देते हैं, वैसे ही ज्ञानी संत और माया मिले हुये-से दिखाई देने पर भी संत अद्वैत ब्रह्म-विचार के बल से माया में रहकर भी माया से छुट्टी१ पा जाते हैं । 
सलिल१ शक्ति२ उलटे चलै, मीन मुनीश्वर माग३ ।
रज्जब माया में मुकत, यहु उत्तम वैराग ॥३५॥ 
मच्छी जल१ प्रवाह के साथ न चलकर उलटी सामने चलती है, वैसे ही संत मायिक२ प्रवाह संसार के मार्ग३ में न चलकर उलटे परमात्मा की ओर ही चलते हैं अर्थात वृत्ति ब्रह्माकार ही रखते हैं, यही उत्तम वैराग्य है, इसी से वे माया में रहकर भी माया से मुक्त रहते हैं । 
प्रवनि१ पानी पहुप२ दिल, उभय अंबु३ निधि४ माँहिं । 
रज्जब शशि सांई सुरति, सलिल शक्ति५ यूं नाँहिं ॥३६॥ 
चन्द्रमुखी कमल१ का पुष्प२ जल३ में रहता है, किन्तु उसकी प्रिति जैसी चन्द्रमा में होती है वैसे जल में नहीं होती, वैसे ही संत माया४ में रहता है, किन्तु उसके हृदय की प्रीति जैसी ब्रह्म में होती है वैसी माया५ में नहीं होती ।
(क्रमशः)

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