मंगलवार, 29 मई 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।* 
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥* 
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।* 
&दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख माँहि ॥* 
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साभार ~ ओशो प्रवचन

*'तू सबका एक द्रष्टा है और सदा सचमुच मुक्त ही है। तेरा बंधन तो ये ही है कि तू स्वयं को छोड़ कर दूसरे को द्रष्टा देखता है।'*
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अत्यंत बहुमूल्य सूत्र है, एक-२ शब्द को गहरे से समझें। साधारणतः मनुष्य को अपने जीवन का बोध दूसरे की दृष्टि से मिलता है, दूसरे की दृष्टि को मनुष्य दर्पण की तरह उपयोग करता है। इसीलिये मनुष्य द्रष्टा का विस्मरण कर देता है, और दृश्य बन जाता है। ये स्वाभाविक भी है। बच्चे को जन्म लेने के क्षण स्वयं का कोई पता नहीं होता, वह दूसरों की दृष्टि से ही देखता है कि मैं कौन हूं? अपना मुख तो दिखाई देता नहीं, दर्पण ढूंढना होगा। दर्पण में मनुष्य जब स्वयं को देखता है तो वह दृश्य बन गया, द्रष्टा नहीं रह गया। मनुष्य की स्वयं से पहचान ही उतनी ही है, जितनी दर्पण पहचान कराता है।
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मां कहती है कि बेटा तू सुंदर है, बेटा स्वयं को सुंदर मानने लगता है। शिक्षक कहते हैं विद्यालय में कि बुद्धिमान हो, वह स्वयं को बुद्धिमान मानने लगता है। कोई निंदा कर देता है तो निंदा भीतर समा जाती है। इसीलिये स्वयं के प्रति मनुष्य का बोध भ्रामक रहता है। क्योकि उसका व्यक्तित्व अनेक विरोधों से मिल कर निर्मित होता है। किसी ने कहा सुंदर हो, किसी ने कहा, तुम और सुंदर; तनिक अपनी शक्ल तो देखो। दोनों कथन भीतर प्रवेश कर गए और द्वन्द उत्पन्न हो गया। किसी ने कहा बड़े बुद्धिमान हो, और किसी दूसरे ने कह दिया - तुम जैसा मूर्ख नहीं देखा। दोनों विपरीत कथन भीतर प्रवेश कर गए और द्वन्द पैदा हो गया। मनुष्य इसीलिये कभी निश्चिन्त नहीं हो पाता कि वह कौन है? इतनी भीड़ है मतों की और सभी मत भिन्न-२ खबर दे रहे हैं।
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दर्पण मनुष्य के सम्बन्ध में खबर थोड़े ही देता है, दर्पण अपने सम्बन्ध में खबर देता है। ऐसे दर्पण देखें होंगे मनुष्य ने, जिनमें मनुष्य लम्बा हो जाता है; ऐसे दर्पण देखें होंगे जिनमें मनुष्य छोटा हो जाता है। दर्पण देखें होंगे जिनमें अति सुंदर हो जाता है, दर्पण देखे होंगे जिनमें कुरूप हो जाता है। दर्पण में जो झलक मिलती है, वो मनुष्य की नहीं है; वो दर्पण के स्वभाव को दर्शाती है। विरोधी कथन एकत्र होते जाते हैं, इन्हीं विरोधी कथनों के संग्रह को मनुष्य समझ लेता है कि ये ही मैं हूं। इसीलिये मनुष्य सदैव डरता, कांपता रहता है। कहीं लोग बुरा न सोच लें, कहीं ऐसा न सोच लें कि मैं मूढ़ हूं; कहीं ये न सोच लें कि दुर्जन हूं।
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मनुष्य भयभीत रहता है क्योंकि लोकमत से ही उसने अपना मैं निर्मित किया है। इसीलिये सदियों-२ से ज्ञानीजन कहते रहें हैं कि यदि स्वयं को जानना है तो लोकमत को त्यागना होगा। बहुत से लोग इसीलिये समाज को छोड़ कर चले जाते हैं क्योंकि समाज में रह कर स्वयं की वास्तविक और सत्य छवि को जान लेना अत्यंत कठिन होता है। समाज इंगित किये चला जाता है कि तुम कौन हो, मनुष्य पूछें न पूछें, सब तरफ से इंगित किये चला जाता है। धीरे-२ मनुष्य इन्हीं झलकों के अनुसार स्वयं को मान कर जीवन जीने लगता है।
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दूसरों का मत इतना मूल्यवान हो गया है कि मनुष्य जानना ही नहीं चाहता कि मैं कौन हूं। दूसरे जो कहते हैं, उन्हीं को एकत्र कर के मनुष्य मैं निर्मित कर लेता है। ये मैं डांवाडोल होता रहता है, क्योंकि लोगों के मन बदलते रहते हैं। न केवल मन अपितु लोगों के कारण भी बदलते रहते हैं। कोई आकर कहता है कि आप जैसा साधु - पुरुष नहीं देखा, इसमें कारण है - वह चाटुकारिता कर रहा है। कोई किसी दूसरे को साधु-पुरुष मानता कहां हैं ? सब केवल अपने को ही साधु मानते हैं। मनुष्य सोचे जरा, वह स्वयं को छोड़कर दूसरे को बड़ी मजबूरी में साधु-पुरुष कहता है। जीवन की आवश्यकताएं हैं, अड़चने हैं; कहना पड़ता है।
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*चाटुकारिता के प्रभाव में लोग क्यों आ जाते हैं?*
मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति को कहे कोई कि तुम बड़े बुद्धिमान हो, वह मान लेता है; क्योंकि उसे स्वयं का कोई पता है ही नहीँ। उससे जो कहा जाता है, वही वो सुन लेता है और वैसा ही स्वयं को मान लेता है। तो लोगों के कारण बदल जाते हैं। कोई कहता है, सुंदर हो। कोई कहता है, असुंदर हो। कोई कहता है, भले हो, कोई कहता है, बुरे हो। सब एकत्र होता चला जाता है और इन विपरीत कथनों के आधार पर मनुष्य अपने मैं को निर्मित कर लेता है। मनुष्य ऐसे रथ पर सवार है, जिसमे चारों ओर घोड़े जुते हुए हैं; और वे सब चारों दिशाओं में भाग रहे हैं, इसीलिये कोई गति हो नहीं रही है। मनुष्य इसीलिये कहीं पहुंच पाता नहीं है।
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*सूत्र है : 'तू सबका एक द्रष्टा है और तू सदा सचमुच मुक्त है।'* 
मनुष्य दृश्य नहीं, द्रष्टा है। तीन तरह के मनुष्य हैं। पहले वे, जो दृश्य बन गए हैं - वे सबसे ज्यादा अन्धेरे में डूबे हुए हैं। दूसरे वे, जो दर्शक बन गए हैं - पहले से थोड़ी ही ठीक स्थिति है उनकी। तीसरे वे, जो द्रष्टा हैं। तीनों को ठीक से समझ लेना आवश्यक है।
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जब मनुष्य दृश्य बन जाता है, तो वह वस्तु बन गया और उसने आत्मा खो दी। नेता और अभिनेता में इसीलिये आत्मा पाना कठिन है। ये दोनों ही दृश्य बन गए हैं और दृश्य बनने के लिए ही जीवन जीते हैं। इनका सारा प्रयास इसी में है कि कैसे लोगों को श्रेष्ठ लगें, सुंदर लगें। ये श्रेष्ठ और सुंदर होना नहीं चाहते, दिखना चाहते हैं। ये पाखंडी हो जाते हैं, बाहर कुछ और भीतर कुछ और। भीतर इनके सड़न ही सड़न भर जाती है।

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