शुक्रवार, 25 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७/१-२) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
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{इस ग्रन्थ में वेदान्त में वर्णित अन्तःकरणचतुष्टय - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की तीन-तीन अवस्थाओं - बहिर्गत, अन्तःस्थिति और परम(उभय वृत्तियों से ऊपर) उत्कृष्ट - का संक्षिप्त परन्तु सुन्दर वर्णन है । ‘त्रिधा भेद सद्गुरु तैं पाये” कहने से शायद यही प्रोयजन हो कि यह निराला एवं उत्कृष्ट वास्तविक विषय किसी ग्रन्थान्तर में नहीं है । परम कहने से निवृत्ति की अवस्था या समाविस्थ होना समझिये । यही अवस्था ब्रह्मानन्द का अनुभव कहलाती है ।}
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*= मनविषयक प्रश्न = चौपई =*
*कौन बहरि मन कहिये स्वामी ।*
*अंतर्मन कहि अंतर्ज्जामी ॥*
*कौन परम मन कहिये देवा ।*
*सुन्दर पूछत मन कौ भेवा ॥१॥*
श्री गुरुदेव ! पीछे वेदान्त के उपदेश के प्रसंग में आपने मन के तीन भेद बताये थे - बहिर्मन अन्तर्मन तथा परम मन । अब कृपया बताइये कि बहिर्मन किसे कहते हैं ? अन्तर्मन किसे कहते हैं ? और हे देव ! परम मन किसे कहते हैं ? मैं अपने ह्रदय का संदेह आप से पूछ रहा हूँ ॥१॥
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*= उत्तर =*
*उहै बहिर्मन भ्रमत न थाकै ।*
*इंन्द्रिय द्वार बिषै सुख जाकै ॥*
*अंतर्मन यौं जानैं कोहं ।*
*सुन्दर ब्रह्म परम मन सोहं ॥२॥*
श्री गुरुदेव ने उत्तर दिया- ‘बहिर्मन’ मन की वह कलुषित अवस्था है जब वह माया के वश भ्रान्त हो कर सांसारिक विषयों की और लगा रहता है । ‘अन्तर्मन’ मन की वह अवस्था है जिससे जिज्ञासु गुरुपदेश के सहारे ‘मैं कौन हूं’- यह चिन्तन करता है । इसी तरह ‘परम मन’ उसे कहते हैं जब ब्रह्म-साक्षत्कार के बाद जो शुद्ध मन ‘सोऽहं’ का अनुभव होता है ॥२॥
(क्रमशः)

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