卐 सत्यराम सा 卐
*फूटी काया जाजरी, नव ठाहर काणी ।*
*तामें दादू क्यों रहै, जीव सरीषा पाणी ॥*
*दादू अमृत छाड़ कर, विषय हलाहल खाइ ।*
*जीव बिसाहै काल को, मूढा मर मर जाइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
अब तक का मनुष्य का जीवन प्रज्ज्वलित ज्योति कहां? जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रतिदिन मनुष्य धीरे-२ मृत्यु की तरफ ही तो बढ़ता जाता है। जिसे मनुष्य जीवन समझता है, वह तो सतत मरते जाने की प्रक्रिया मात्र है।
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जीवन का पता ही नहीं है, तो मनुष्य जीवन जीयेगा कैसे? शरीर प्रतिदिन क्षीण होता चला जाता है, बल रोज खोता चला जाता है; विषय-भोग रोज-२ चूसते चले जाते हैं। जराजीर्ण करते चले जाते हैं। विषय और कामनाएं छिद्रों की तरह है, जिनसे ऊर्जा और आत्मा प्रतिपल बहती रहती है; और अंत में घड़ा खाली रह जाता है। इसी को मृत्यु कहते हैं। ध्यान रहे छिद्र वाले घड़े को यदि कुएं में डालें तो जब तक घड़ा डूबा रहता है, भरा हुआ प्रतीत होता है; पानी के ऊपर खींचते ही खाली होना शुरू और बड़ा शोरगुल मचता है। बस ऐसा ही जीवन भी है, जिसे मनुष्य ने अभी तक जाना है। घड़ा जब ऊपर आता है तो रिक्त होता है, बस ऐसे ही अंतिम क्षणों में जीवन रिक्त चला गया; व्यर्थ चला गया, ये ही हाथ आता है।
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जन्म के क्षण सब भरा हुआ प्रतीत होता है। जैसे-२ समय बीतता है, शोरगुल तो बहुत होता है जीवन में; लेकिन अंतिम क्षणों में हाथ खाली ही रह जाते हैं। विषय, विष हैं; क्योंकि उन्हें खा-२ कर मनुष्य केवल मरता है। उनसे जीवन तो मिलता नहीं।
**'यदि तू मुक्ति चाहता है, तो हे प्रिय विषयों को विष के समान त्याग दे; और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य को अमृत के समान सेवन कर।'* अमृत का अर्थ है : जिससे जीवन मिले, जिससे अमरत्व मिले; जिससे उसका ज्ञान हो, जो शाश्वत है।
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तो...
**क्षमा !**
क्रोध विष है; क्षमा अमृत है।
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**आर्जव !**
कुटिलता विष है; सीधा-सरलपन, आर्जव अमृत है।
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**दया !**
कठोरता, क्रूरता विष है; दया, करुणा अमृत है।
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**संतोष !**
जो है उससे तृप्ति, जो नहीं है उसकी आकांक्षा नहीं है। असंतोष का कीड़ा खाये चला जाता है। असंतोष हृदय में कैंसर की तरह है, फैलता चला जाता है; विष को फैलाये चला जाता है।
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जो है, वो पर्याप्त से ज्यादा है, आँखे खोले मनुष्य और जरा देखे ! संतोष को थोपना नहीं है। गौर से मनुष्य देखे तो पायेगा, जो मिला है; वह सदा ही जरूरत से ज्यादा है ! जो चाहिए वह मिलता ही रहा है। जो चाहा, वह सदा मिल गया है। गलत चाहा, गलत मिल गया; सही चाहा, तो सही मिल गया। मनुष्य की चाह से ही जीवन निर्मित हुआ है। चाह है बीज, फिर जीवन उसकी फसल है। जन्मों-२ से मनुष्य जो चाहता रहा है वही उसे मिलता रहा है। कई बार मनुष्य सोचता है कि जो चाहा था, वह तो नहीं मिल रहा है - चाहने में कोई भूल नहीं हुयी है लेकिन चाहा ही गलत था।
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जैसे मनुष्य चाहता है सफलता और मिलती है विफलता। जिसने सफलता चाही, उसने विफलता को स्वीकार कर ही लिया; विफलता न हो इसीलिये तो सफलता चाह रहा है। जब-२ सफलता चाहेगा, तब-२ विफलता का ख्याल भी उठेगा। विफलता का ख्याल भी मजबूत होता चला जाएगा। सफलता तो जब मिलेगी, तब मिलेगी; लेकिन यात्रा विफलता के ख्यालों के साथ ही होगी। और एक दिन विफलता का ख्याल संग्रहीभूत होकर प्रकट हो जाएगा। सफलता को चाहने में ही विफलता को भी चाह लिया था।
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