#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जेती लहर समंद की, ते ते मनहि मनोरथ मार ।*
*बैसे सब संतोंष कर, गहि आत्म एक विचार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*प्रसिद्ध साधु का अंग ३४*
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इन्द्रिय अहि१ सु अँगार हैं, साधु मोर चकोर ।
यह अहार ये ही करैं, और थकित२ इहिं ओर ॥१७॥
सर्पों१ को मोर और अंगारों को चकोर खाता है, वैसे ही इन्द्रियों को प्रसिद्ध साधु खाते हैं अर्थात जीतते हैं । सर्प, अंगार और इंद्रियों का आहार, मोर, चकोर और संत ही करते हैं अन्य सब इस कार्य की ओर हारे२ हुये हैं ।
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आत्म अंभ१ भुवि स्थूल परि, उदय प्रकीरति२ प्राण३ ।
रज्जब रज तलि तत्त्व तोय४, तहां न दोय निशाण ॥१८॥
पृथ्वी पर जल१ बर्षता है, तब उससे बहुत से प्राणी३ उत्पन्न होते हैं और उसकी विशेष शोभा२ होती है, वही जल४ तत्त्व जब पृथ्वी के रज के नीचे रहता है तब उक्त दोनों चिन्ह उसके नहीं भासते, वैसे ही जीवात्मा स्थूल शरीर में आता है, तब उसका प्राण३ संचार और विशेष रूप चिन्ह दिखाई देते हैं, सूक्ष्म शरीर में रहता है तब दोनों चिन्ह नहीं भासते ।
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तन मन धक्का देत है, पुनि धक्का पंच भूत ।
रज्जब इनमें ठाहरै, सो आतम अवधूत ॥१९॥
शरीर, मन और पंच भूत मायिक कार्य होने से माया की और धकेलते हैं, किन्तु इनके धक्कों में भी जो पर-ब्रह्म के चिन्तन में स्थित रहता है वह आत्मा अवधूत अर्थात प्रसिद्ध संत है ।
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मनह१ मनोरथ मेट कर, दिल राखे जु दुर२ स३ ।
रज्जब काल कुभाव को, पूरा प्राण पुरस ॥२०॥
मन१ के मनोरथों को नष्ट करके अपने अंत:करण से कुभावना रूप काल को जो दूर२ रखता है, वही३ प्राणियों में पूरा पुरुष रूप प्रसिद्ध साधु है ।
(क्रमशः)
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