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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू नाल कमल जल ऊपजै, क्यों जुदा जल मांहि?*
*चंद हि हित चित प्रीतड़ी, यो जल सेती नांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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इस अंग में माया में रह कर भी मुक्त रहने वाले ज्ञानी संतों के संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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मणि भुजंग ज्यों एकठे, गुण गति भिन्न विचार ।
जन रज्जब ऐसे रहै, साधु इहिं संसार ॥१॥
मणि और सर्प दोनों साथ रहते हैं, किन्तु उनके गुण भिन्न ही होते हैं, मणि सर्व -विष के पास रहने पर भी उससे मुक्त रहती है, वैसे ही ज्ञानी साधु संसार में रहते हुये भी ब्रह्मज्ञान के विचार द्वारा संसार से भिन्न रहते हैं ।
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जन रज्जब रवि शशि सदा, रहैं शून्य१ अस्थान ।
एक महल एका नहीं, देखो गति मति आन ॥२॥
सूर्य और चन्द्रमा दोनों आकाश१ रूप एक ही स्थान में रहते हैं, किन्तु देखो उनकी चाल भिन्न ही होती है, वैसे ही ज्ञानी संत और आज्ञानी एक महल में रहने पर भी उनकी बुद्धि के विचारों में एकता नहीं रहती, अज्ञानी माया में बद्ध रहता है, ज्ञानी माया से मुक्त होता है ।
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लोई१ रंग राचे नहीं, सूत सदा मध्य श्वेत ।
जन रज्जब जन यूं जुदे, नहीं धरे सौ हेत ॥३॥
मारवाड़ में एक रंग होता है, वह ऊन से बनी कम्बली१ को तो रँगता है, किन्तु कम्बली में लगे सूत के धागे को नहीं रँगता, वे श्वेत ही रहते हैं, वैसे ही अज्ञानी तो माया-रंग से रँगे जाते हैं, किन्तु ज्ञानी जन माया रंग से अलग ही रहते हैं कारण, उनका मायिक संसार में प्रेम ही नहीं होता, उनकी वृत्ति तो निरंतर ब्रह्माकार ही रहती है ।
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दर्पण में सब देखिया, गहिबे को कुछ नाँहिं ।
त्यों रज्जब साधु जुदे, माया काया माँहिं ॥४॥
दर्पन में प्रतिबिम्ब से सब दीखते हैं, किन्तु पकड़ने के लिये कुछ भी नहीं, वैसे ही ज्ञानी संत में माया तथा काया संबंधी व्यवहार प्रतीत होता है, किन्तु वास्तव में कुछ भी नहीं है, वे तो उससे मुक्त ही हैं ।
(क्रमशः)
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