शनिवार, 26 मई 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(३७-४०) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*खड्ग धार विष ना मरै, कोइ गुण व्यापै नांहि ।*
*राम रहै त्यों जन रहै, काल झाल जल मांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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समझी सुरति सु सीप, शक्ति१ समुद्र माँहिं रहै ।
रज्जब स्वाति समीप, उदधि२ उदक३ सो ना गहै ॥३७॥ 
संत की ज्ञान युक्त वृत्ति सीप के समान है, जैसे सीप समुद्र में रहती है, किन्तु समुद्र२ का जल३ ग्रहण नहीं करती स्वाति बिन्दु को ही ग्रहण करती है, वैसे ही संत की वृत्ति माया१ में रहती है, किन्तु मायिक सुखों में आसक्त नहीं होती, ब्रह्म चिन्तन द्वारा ब्रह्म के पास ही रहती है । 
साधु शक्ति मध्य यूं रहै, ज्यों अंबुज१ अंबु२ थान ।
मिले अमिल रज्जब कहै, साक्षी३ शशिहर४ भान५ ॥३८॥ 
जैसे कमल१ जल२ के स्थान तालाब में उसके जल में मिलकर भी अलग रहता है, कमल के इस व्यवहार को देखने वाले३ चन्द्रमा४ और सूर्य५ हैं, वैसे ही संत माया में मिलकर भी उनसे अलग ही रहते हैं, संत के इस व्यवहार के साक्षी ब्रह्म हैं ।
रज्जब माया में मुकत, ज्यों जंतर के तार ।
सकल राग माँहिं नहीं, वेत्ता१ करो विचार ॥३९॥ 
जैसे सितार रूप यंत्र के तारों में सभी राग दिखाई देती है किन्तु उनमें कुछ भी नहीं है, वैसे ही ज्ञानी१ का विचार करो, उसमें माया भासती है, किन्तु वह माया से मुक्त है । 
साधु दोयज१ चन्द पर, सब की आँवें आँख । 
मन मयंक२ सो मोह बिन, दई३ दृष्टि नहिं नाँख ॥४०॥ 
दूज१ के चन्द्र दर्शनार्थ सबके नेत्र उस पर जाते हैं, किन्तु चन्द्रमा२ किसी की और नहीं देखता, वह तो अपनी सहज गति में ही प्रवृत रहता है, वैसे ही संत दर्शनार्थ संत की ओर सभी के नेत्र आते हैं, किन्तु संत का मन मोह रहित होने से संत रागपूर्वक किसी पर भी दृष्टि नहीं डालता, प्रारब्ध३वश ही प्रवृत होता है ।
(क्रमशः)

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