#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू देखे वस्तु को, बासन देखे नांहि ।*
*दादू भीतर भर धर्या, सो मेरे मन मांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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साधु सूरज सारिखा, आदि अंत मधि१ लाल ।
रज्जब रहता एक रस, तिमर न परसे साल ॥९॥
संत सूर्य के समान है, जैसे सूर्य आदि मध्य१, अंत में लाल रहता है और उसे वर्ष भर में कभी अँधेरा नहीं छू पाता, वैसे ही संत मायिक संसार में रहते हुये भी एक रस रहते हैं, उन्हें अज्ञान स्पर्श करके दु:ख नहीं दे सकता ।
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रज्जब वेत्ता१ बीजली, घट सु घटा के माँहिं ।
शक्ति सलिल न्यारे२ निकट, लिपै छिपै सौ नाँहिं ॥१०॥
बिजली बादल की घटा में जल के पास रहते हुये भी जल में नहीं छिपती और जल से अलग रहती है, वैसे ही ज्ञानी१ संत मायिक शरीर में रहकर माया के निकट रहते हुये भी उससे लीपायमान न होकर अलग२ ही रहते हैं ।
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बडवानल अरु वज्र१ को, पाणी परसे नाँहिं ।
यूँ रज्जब रहते पुरुष, मिलैं न माया माँहिं ॥११॥
समुद्र में रहने वाले बडवानल अग्नि को और बादल में रहने वाली बिजली१ को जल नहीं छूता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष माया में रहते हैं, किन्तु माया में नहीं मिलते, अलग ही रहते हैं ।
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रज्जब पुरुष पुहमि१ पहरैं सदा, अम्बर२ भार अठार ।
बाहर देखैं बाहिले३, माँहिं नग्न व्यवहार ॥१२॥
बहिर्मुखी१ जन बाहर से पृथ्वी२ को अठारह भार वनस्पति रूप वस्त्र और ज्ञानी संत को सुन्दर वस्त्र३ पहने हुये देखते हैं, किन्तु भीतर से दोनों ही नग्न हैं । पृथ्वी के भीतर वनस्पति नहीं है और संत के मन में सुन्दर वस्त्रों का राग नहीं है ।
(क्रमशः)
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