卐 सत्यराम सा 卐
*अपना भंजन भर लिया, उहाँ उता ही जाण ।*
*अपणी अपणी सब कहैं, दादू बिड़द बखाण ॥*
*पार न देवै आपना, गोप गूझ मन मांहि ।*
*दादू कोई ना लहै, केते आवैं जांहि ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
मनुष्य क्या करेगा देख कर? खूब देखा, पाया क्या? क्या करेगा दिखा कर? कौन है यहां, जिसे दिखाकर कुछ मिलेगा? इन दोनों से पार हट कर, द्वंद्व का अतिक्रमण करके जो मनुष्य द्रष्टा में थिर हो जाता है; वह पाता है कि द्रष्टा तो एक ही है। यहां दूसरा नहीं है, अन्य है ही नहीं; जो है अनन्य है। लेकिन उसे जब तक मनुष्य भीतर से न पकड़ लेगा, तब तक ये समझ न आएगा। *'तू सबका एक द्रष्टा है, और सदा सचमुच मुक्त है।'* सचमुच मुक्त है, इसे कल्पना न समझे मनुष्य। मनुष्य बेहद जटिल और विचित्र है। वह संसार को तो सत्य समझता है और जो सत्य हैं, उन्हें कल्पना समझ लेता है। दुःख को सत्य मानता है और आनंद को कल्पना समझ लेता है। इतने जन्मों-२ तक दुःख के साथ रहा है मनुष्य कि आनंद भी हो सकता है, इस पर मनुष्य को भरोसा नहीं आता।
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दुःख से ऐसा जुड़ाव हो गया है, रोने की ऐसी आदत हो गई है; आनंद स्वप्न की तरह लगता है, होगा नहीं, हो नहीं सकता। इसीलिये ये कहा गया है कि सचमुच तू मुक्त है, बंधन है भी नहीं; बन्धन असम्भव है। न तो बांधने को कुछ है, और न बंधने को कुछ है। बंधन केवल मान्यता का है। केवल माना हुआ है। *'तेरा बंधन तो ये ही है कि तू स्वयं को छोड़कर दूसरे को द्रष्टा देखता है।'* एक ही बंधन है कि मनुष्य स्वयं को छोड़कर दूसरे को द्रष्टा देखता है और एक ही मुक्ति है कि मनुष्य स्वयं को द्रष्टा जान ले। किसी वृक्ष को मनुष्य देखता है तो धीरे-२ वृक्ष को देखते-२ उसको भी मनुष्य देखना शुरू करे जो वृक्ष को देख रहा है।
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जरा बोधपूर्ण होना पड़ेगा। साधारणतः चेतना का तीर वृक्ष की तरफ जा रहा है। इसे दोनों तरफ कर ले मनुष्य-वृक्ष को भी देखे और साथ ही प्रयास करे उसे भी देखने का जो वृक्ष को देख रहा है। देखने वाले को न भूले,बार-२ भूलेगा क्योंकि जन्मों-२ की आदत है। लेकिन बार-२ देखने वाले को पकड़े। जैसे-२ देखने वाला पकड़ में आएगा, कभी क्षण भर को भी पकड़ में आ गया; तो भीतर अन्तस् में एक अपूर्व शांति उतर आएगी। एक सौभाग्य उतरा। एक क्षण के लिए भी यदि ये घटित हो गया, तो एक क्षण के लिए ही सही; मुक्ति का स्वाद मनुष्य को मिल जाएगा। ये स्वाद मनुष्य के जीवन को रूपांतरित कर देगा। यहां पढ़ते क्षण में, साथ में उसे भी देखे मनुष्य जो पढ़ रहा है। बोध, होश यदि जो पढ़ रहा है मनुष्य; यदि केवल उसमे ही अटक कर रह गया, तो मनुष्य दर्शक मात्र रह गया। जब भी होश विषय पर अटक जाए, मनुष्य दर्शक ही रह गया।
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पढ़ते क्षण में पढ़ने वाले का भी बोध बना रहे - धीरे-२ मनुष्य पायेगा कि जिस क्षण में पढ़ने वाले को भी पकड़ लिया - उसी क्षण में ही केवल मनुष्य ने पढ़ा,शेष सब पढ़ना व्यर्थ गया। केवल तभी जो यहां कहा जा रहा है, मनुष्य उसे ही समझेगा। यदि पढ़ने वाले को न पकड़ पाया मनुष्य तो न जाने क्या-२, जो यहां कहा नहीं गया है;वह भी समझ लेगा। मनुष्य का मन नए-२ जाल बुन लेगा। मनुष्य बेहोश है, बेहोशी में कैसे होश की बातों को समझ सकेगा? मनुष्य ने यदि नींद में पढ़ा तो इनके आस-पास सपने बुन लेगा। अपने ढंग से इनका अर्थ निकालेगा। इनकी व्याख्या कर लेगा और उस व्याख्या से वास्तविक अर्थ खो जाएगा।
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मनुष्य क्या करेगा देख कर? खूब देखा, पाया क्या? क्या करेगा दिखा कर? कौन है यहां, जिसे दिखाकर कुछ मिलेगा? इन दोनों से पार हट कर, द्वंद्व का अतिक्रमण करके जो मनुष्य द्रष्टा में थिर हो जाता है;वह पाता है कि द्रष्टा तो एक ही है। यहां दूसरा नहीं है, अन्य है ही नहीं; जो है अनन्य है। लेकिन उसे जब तक मनुष्य भीतर से न पकड़ लेगा,तब तक ये समझ न आएगा। *'तू सबका एक द्रष्टा है,और सदा सचमुच मुक्त है।'* सचमुच मुक्त है, इसे कल्पना न समझे मनुष्य।
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मनुष्य बेहद जटिल और विचित्र है। वह संसार को तो सत्य समझता है और जो सत्य हैं, उन्हें कल्पना समझ लेता है। दुःख को सत्य मानता है और आनंद को कल्पना समझ लेता है। इतने जन्मों-२ तक दुःख के साथ रहा है मनुष्य कि आनंद भी हो सकता है ,इस पर मनुष्य को भरोसा नहीं आता। दुःख से ऐसा जुड़ाव हो गया है, रोने की ऐसी आदत हो गई है; आनंद स्वप्न की तरह लगता है, होगा नहीं, हो नहीं सकता। इसीलिये ये कहा गया है कि सचमुच तू मुक्त है,बंधन है भी नहीं; बन्धन असम्भव है। न तो बांधने को कुछ है,और न बंधने को कुछ है। बंधन केवल मान्यता का है। केवल माना हुआ है।
*'तेरा बंधन तो ये ही है कि तू स्वयं को छोड़कर दूसरे को द्रष्टा देखता है।'*
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