सोमवार, 18 जून 2018

= १४८ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन फकीर सतगुरु किया, कहि समझाया ज्ञान ।*
*निश्चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का ध्यान ॥* 
*दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।*
*अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥* 
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*""""""»मोक्ष तुम्हें खुद लेना पड़ेगा «""""""*
आज साहब की कृपा से सद्गुरु का अनमोल वचन उन पाखण्डी, धूर्त गुरु जो सहज में मुक्ति(मोक्ष) बांटते घूमते हैँ और जो मूर्ख चेले ऐसे झांसे में पड़ते हैं, वे दोनों इन बातों पर ध्यान दें.....
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फफा फल लागे बड़ दूरी । 
चाखे सतगुरु देइ न तूरी॥ 
फफा कहै सुनहु रे भाई । 
स्वर्ग पताल की ख़बरि न पाई ॥ 
(बीजक ज्ञान चौंतीसा)
फ - अक्षर के माध्यम से सतगुरु उपदेश करते है कि मोक्षरूपी फल बहुत दूरी पर लगा है । सतगुरु उसे तोड़कर, झट से मुमुक्षु के हाथों में दे नहीं सकते कि वह बिना परिश्रम तुरन्त उसका स्वाद चख ले । जो लोग यह मानते है कि शिष्य के परिश्रम किये बिना सतगुरु उसे मोक्ष-फल दे देते हैं, वे स्वर्ग-पाताल अर्थात स्वर्ग-नरक एवं बंध-मोक्ष का रहस्य नहीं जानते । ।
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यहां पर चार बातें बतायी गयी हैं, जिनमें तीन खुलकर हैं तथा एक उनमें अदृश्य होते हुए उसी पर सारा जोर है । पहली बात है *फल लागे बड़ दूरी ।* अर्थात मोक्ष-फल दूर लगा है । यह कथन मोक्ष की दुर्लभता पर प्रकाश डालता है । जीवों की विषयों में अत्यन्त आसक्ति होने से यह बात सच है । जिनके ह्रदय मे जितनी अधिक विषयासक्ति है उनके लिए मोक्ष उतना ही दूर है । विषयासक्ति पूर्णतया समाप्त हो जाये तो मोक्ष जीव का स्वरूप ही है । अत एव विषयासक्ति के कारण ही मोक्ष की दुर्लभता बतायी गयी है ।
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दूसरी बात हें *चाखे सतगुरु देइ न तूरी* यदि शिष्य यथार्थ - ज्ञान की प्राप्ति तथा साधना में परिश्रम न करे, तो सतगुरु मोक्ष फल तोड़कर उसे दे नहीं सकते हैं कि शिष्य गप से खा ले । बहूत-से लोगों में यह बडा भ्रम है कि गुरु जिस शिष्य पर कृपा कर देता है, उस पर अपना शक्तिपात कर देता है और उसे तुरन्त मुक्त कर देता है तथा उसे सारी योग्यताओं से सम्पन्न कर देता है । परन्तु सतगुरु कबीर कहते हैं कि ये सारी बातें भ्रमपूर्ण हैं । 
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यह सच है कि ज्ञान, वैराग्य एवं दिव्य रहनी से सम्पन्न सतगुरु के चरणों में जब निश्छल ह्रदय से शिष्य समर्पित हो जाता है, तब उसे गुरु की सारी बातों से बड़ा बल मिलता है । बिना आदर्श पाये कोई मनुष्य किसी दिशा मे प्राय: उन्नति नहीं कर सकता । डॉक्टर, इंजीनियर, वकील तथा विद्धान बनने के लिए अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील एवं विद्वान के आदर्श की आवश्यकता है, जिनकी दी हुई शिक्षा एवं आचरण से प्रेरणा लेकर जिज्ञासु उन दिशाओं में निष्णात हो । यह सब होते हुए भी जिज्ञासु को स्वयं परिश्रम तो करना ही पड़ेगा । 
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इसी प्रकार यथार्थ ज्ञान और दिव्य रहनी से सम्पन्न सद्गुरु की शरण, और उनके उच्च आदर्श मुमुक्षु में प्राण फूंकने वाले हैँ ; किन्तु उसे स्वयं सेवा, स्वाध्याय, सत्संग, निर्णय, ध्यान, समाधि आदि के अभ्यास में परिश्रम करना ही पड़ेगा। यही तीसरी बात है जो मूल पद में गुप्त होते हुए भी सर्वाधिक उद्घाटित और जोरदार है । *चाखे सतगुरु देइ न तूरी* इस वाक्यांश में शिष्य एव साधक के परिश्रम की उपयोगिता की पूर्ण अभिव्यंजना है ।
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चौथी बात है *स्वर्ग पताल की खबरि न पाई ।* अर्थात जो लोग यह मानते हैं कि शिष्य के परिश्रम किये बिना सतगुरु उसे मोक्ष फल दे सकते हैं, कबीर साहेब कहते हैं कि वे लोग स्वर्ग और नरक क्या है, मोक्ष और बंधन क्या है, इस रहस्य से अनभिज्ञ हैं । यहां अभिप्राय इतना ही है कि वे मोक्ष की वास्तविक्ता नहीं समझते । मोक्ष कोई ऐसा फल नहीं है जिसे सतगुरु तोड़कर शिष्य के मुख में डाल सके । वस्तुत: हर मनुष्य के मन में विषयों की आसक्ति है । यही राग -द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोहादि सारे विकारों का कारण है और यही जीव का बंधन है । विवेक द्वारा इसे तोड़ना जीव का ही काम है । 
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इस काम में सहयोगीे सतगुरु और संतजन हैं । उनसे ज्ञान और युक्ति सीखो जाती है । सतगुरु और सन्तों के निर्बन्ध जीवन से भी साधक को प्रेरणा का बल मिलता है I यही सब गुरु-संतो का सहयोग है । परन्तु सहयोग लेकर काम करना पड़ेगा स्वयं साधक को ही । इस बात को नहीं भूलना चाहिए।
(साहेब बन्दगी सभी सन्तजनों को)

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