#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*"श्री दादू अनुभव वाणी"* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*जीवित मृतक का अँग २३*
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*दीनता - गरीबी*
गरीब गरीबी गह रह्या, मस्कीनी मस्कीन ।
दादू आपा मेट कर, होइ रह्या लै लीन ॥२८॥
प्रसंग आमेर नरेश मानसिंह ने प्रश्न किया था, गरीबदास तथा मस्कीनदास नाम आपके शिष्यों के क्यों रक्खे गये हैं ? २८ में उसी का उत्तर दे रहे हैं, गरीबदास गरीबी और मस्कीनदास मिस्कीनी(दीनता) ग्रहण करके सब प्रकार का अहँकार हटा कर परब्रह्म में वृत्ति लगाकर लीन हो रहे हैं, इसीलिए रक्खे गये हैं ।
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*उभय असमाव*
मैं हूं मेरी जब लगे, तब लग विलसे खाइ ।
मैं नाहीं मेरी मिटे, तब दादू निकट न जाइ ॥२९॥
२९ - ३१ में कहते हैं, "मैं और मेरी" रूप अहँकार के रहते ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती । जब तक "मैं हूं और ये नारी आदि सब मेरी वस्तुएं हैं" यह भावना है, तब तक ही प्राणी का मन आसक्ति पूर्वक उनके उपभोग में अनुरक्त रहता है और जब "मैं" रूप अहँकार नहीं रहता, तब "ये सब वस्तुएं मेरी हैं", यह भावना भी मिटकर "सब भगवान् की हैं", ऐसी भावना आ जाती है फिर आसक्ति पूर्वक मन उनके पास नहीं जाता, वैराग्य - पूर्वक ही जाता है ।
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दादू मना मनी१ सब ले रहे, मनी न मेटी जाइ ।
मना मनी जब मिट गई, तब ही मिले खुदाइ ॥३०॥
यह मन सब प्रकार का अहँकार१ लिये रहता है । इससे अहँकार नहीं मेटा जाता । जब साधन द्वारा साधकों का अहँकार मिट जाता है, तब ही उन्हें परब्रह्म प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)
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