卐 सत्यराम सा 卐
*दादू खोजि तहाँ पीव पाइये, जहँ अजरा अमर उमंग ।*
*जरा मरण भौ भाजसी, राखै अपणे संग ॥**(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
*सर्वदा आकाशवत निर्विकल्प ज्ञानी को कहां संसार है,*
*कहां आभास है, कहां साध्य है, कहां साधन है?*
वह जो अपने भीतर आकाश की तरह साक्षीभाव में निर्विकल्प होकर बैठ गया है, उसके लिए फिर कोई संसार नहीं है। संसार है मन और चेतना का जोड़। संसार है साक्षी का मन के साथ तादात्म्य। जिसका मन के साथ तादात्म्य टूट गया उसके लिए फिर कोई संसार नहीं। संसार है भ्रांति मन की; मन के महलों में भटक जाना। वह दीया बुझ गया साक्षी का तो फिर मन के महल में हम भटक जायेंगे। दीया जलता रहे तो मन के महल में न भटक पाएंगे।
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इतनी सी बात है। बस इतनी सी ही बात है सार की, समस्त शास्त्रों में। फिर कहां साध्य है, कहां साधन है न जिसको साक्षी मिल गया उसके लिए फिर कोई साध्य नहीं, कोई साधन नहीं। न उसे कुछ विधि साधनी है, न कोई योग, जप-तप; न उसे कहीं जाना है, कोई मोक्ष, कोई स्वर्ग, कोई परमात्मा। न ही उसे कहीं जाना, न ही उसे कुछ करना। पहुंच गया।
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*साक्षी में पहुंच गए तो मुक्त हो गए। साक्षी में पहुंच गए तो पा लिया फलों का फल। भीतर ही जाना है। अपने में ही आना है।*
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यह साक्षी आकाशवत है। जैसे आकाश की कोई सीमा नहीं, ऐसे ही साक्षी की कोई सीमा नहीं। और जैसे आकाश पर कभी बादल घिर जाते हैं, तो आकाश खो जाता है, ऐसे ही साक्षी पर जब मन घिर जाता है, मन के बादल, विचार के बादल, तो साक्षी खो जाता है। परन्तु वस्तुत: खोता नहीं। जब वर्षा में घने बादल घिरे होते हैं तब भी आकाश खोता थोड़े ही, केवल दिखाई नहीं पड़ता है। ओझल हो जाता है। आंख से ओझल हो जाता है। फिर बादल आते, चले जाते, आकाश फिर प्रकट हो जाता है।
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जिसको हम विचार कहते हैं, वे हमारे चैतन्य के आकाश पर घिरे बादल हैं। उनसे हम जरा अपने को अलग कर ले, अपना और हम अचानक पाएंगे, उसे पा लिया जिसे कभी खोया ही न था। उसे पा लिया जो खोया ही नहीं जा सकता। और वही पाने योग्य है, जो खोया नहीं जा सकता। जो खो जाएगा, जो खो सकता है, उसे पा कर भी क्या करेंगे? वह खो ही जाएगा। वह पुनः खो जाएगा।
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