शुक्रवार, 15 जून 2018

= विचार का अंग ३६(२१-२४) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*आदि अन्त गाहन किया, माया ब्रह्म विचार ।*
*जहँ का तहँ ले दे धर्या, दादू देत न बार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*विचार का अंग ३६*
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वपु१ वसुधा२ में विघ्न बहु, टाले एक विचार । 
रज्जब पड़े न प्राणि पर, इस माया की मार ॥२१॥ 
जीवन काल में पृथ्वी२ पर शत्रु आदि द्वारा और शरीर१ में रोगादि द्वारा बहुत विघ्न आते हैं, उन सबसे बचने में एक विचार ही समर्थ है । विचारशील प्राणी पर इस माया की आसक्ति आदि से होने वाली मार नहीं पड़ती । 
जन रज्जब नट साधु के, साधन सुमति बात । 
द्वै निकसे बहु अण्यों१ में, चोट न लागे गात ॥२२॥ 
नट तथा संत इन दो के साधन और सुबुद्धि की ही विशेष बात होती है, नट अपने शरीर को इस प्रकार साध लेता है कि बहुत-से शस्त्रों की नोकों१ में से सर्प के समान बल खाता हुआ निकल जाता है किन्तु उसके किसी भी शस्त्र की नोक की चोट नहीं लगती, वैसे ही संत भी सुमति के बल से अनेक आसुर गुणों से निकल जाता है किन्तु उनका आधात संत पर नहीं लगता । 
ज्यों नट निकसे अण्यु हुं में, अंगहि लावे नाँहिं । 
त्यों रज्जब कहिबा कठिन, महन्त मसंदौ१ माँहिं ॥२३॥ 
जैसे नट शस्त्रों की नोकों में से निकल जाता है, कहीं भी शरीर को नहीं लगने देता, वैसे ही बड़े तकियों१ का सहारा लिये गद्दी१ पर बैठने वाले महन्त भोग सामग्री द्वारा आसुरी गुणों से उनकी चोट बिना खाये निकल जावें यह कहना कठिन है । 
शब्द बोलना सभा में, सतरंज का सा खेल । 
रज्जब किया मात१ मन, दुर्लभ दुर्जन पेल२ ॥२४॥ 
सभा में श्रेष्ठ संत के समान आसुर गुण-सेना सहित मोह महाराज को विजय करने के शब्द बोलना तो सतरंज के खेल के समान है, जैसे सतरंज की विजय से कोई देश हाथ नहीं लगता, वैसे ही बातों से ब्रह्म साक्षात्कार नहीं होता किन्तु जिसने दुर्जन मत तथा दुर्गणों को अपनी विचार शक्ति तथा दैवीगुण-सेना से हरा१ कर हटा२ दिया है, वह संत दुर्लभ है ।
(क्रमशः)

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