卐 सत्यराम सा 卐
*सांई दीया दत घणां, तिसका वार न पार ।*
*दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥*
*दादू निबरा ना रहै, ब्रह्म सरीखा होइ ।*
*लै समाधि रस पीजिये, दादू जब लग दोइ ॥*
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अहंकारी बड़े दुःख पाता है क्योंकि अहंकार के कारण वह बड़ी अपेक्षाएं करता है, जो कभी पूरी नहीं होती। अपेक्षाएं अनंत हैं,जीवन बहुत छोटा है; अपेक्षाएं करने वाला दुखी अवश्यमेव होगा। जीवन जीने की एक और कला भी है। अपेक्षाशून्य - बिना मांगे, जो मिल जाए उसके प्रति धन्यवाद से भरे रहना; कृतज्ञ भाव से भरे रहना। जो मिला है, वह है आवश्यकता से अधिक; लेकिन मनुष्य देखे तब ना; जो मिला है वो मनुष्य को दिखाई नहीं पड़ता। मनुष्य है, ये ही इतना बड़ा चमत्कार है। इससे बड़ा और कोई चमत्कार मनुष्य सोच सकता है क्या? लेकिन मनुष्य की इस पर कभी दृष्टि जाती ही नहीं। जितना अधिक मनुष्य चाहेगा, उतना ही अधिक उसके जीवन में दुःख होगा।
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ध्यान दे मनुष्य ! बिना चाहे कितना मिला है ! अपूर्व मनुष्य के ऊपर बरसा है ! अकारण ! मनुष्य ने कमाया क्या है? क्या है मनुष्य की कमाई जिसके कारण जीवन उसे मिले? क्या है कारण? इसके लिए मनुष्य ने किया क्या है? यहां मनुष्य को सब मिला है - प्रसादरूप ! फिर भी मनुष्य परेशान है। जरूर अहंकार का रोग खाये चला जा रहा है। ये रोग ही सबको जकड़े हुए है। बच्चा जब जन्म लेता है, तब कोई अहंकार नहीं होता; एकदम निर्दोष एवम् निरहंकारी होता है। फिर धीरे-२ अहंकार निर्मित किया जाता है। मां, पिता, परिवार, समाज, विद्यालय सब उसके अहंकार को मजबूत किये चले जाते हैं।
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हमारी शिक्षण और संस्कार की, सभ्यता और संस्कृति की समस्त प्रक्रिया केवल अहंकार नाम की बीमारी को जन्म देती है। ये अहंकार जीवन भर मनुष्य के पीछे प्रेत की तरह लगा रहता है। धर्म का ठीक अर्थ इतना ही है : समाज, संस्कृति, सभ्यता मनुष्य को जो बीमारी दे देते हैं - अहंकार नाम की; धर्म उस बीमारी की औषधि है। धर्म - समाज विरोधी है, सभ्यता विरोधी है; संस्कृति विरोधी है। धर्म क्रांति है। क्रान्ति का अर्थ है : दूसरों ने जो मनुष्य को बीमारी दे दी है, उसका उपचार कैसे हो। क्योंकि वो ही मनुष्य की पीड़ा और मनुष्य का नर्क है। अहंकार के अतिरिक्त जीवन में और कोई बन्धन नहीं है।
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अहंकार का अर्थ है चेतना का स्वयं के अतिरिक्त किसी और से जुड़ जाना। कोई मनुष्य कहता है कि मैं बुद्धिमान हूं, उसने बुद्धि से स्वयं को जोड़ दिया। उसकी चेतना अशुद्ध हो गई। ध्यान दें, दूध में यदि कोई पानी मिला दे तो ये कहा जाता है कि दूध अशुद्ध हो गया। पानी मिलाने वाला यदि ये कहे कि एकदम शुद्ध जल मिलाया है, तो? तब भी दूध अशुद्ध हो गया। ध्यान दे मनुष्य तो पायेगा कि केवल दूध ही अशुद्ध नहीं हुआ, जल भी अशुद्ध हो गया। दूध और जल अलग-२ थे तो शुद्ध थे, मिल कर अशुद्ध हो गए। विपरीत, विजातीय और अन्य से मिल कर उपद्रव होता है।
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बुद्धि यंत्र है, मनुष्य उसका उपयोग करे। जैसे ही मनुष्य ने कहा कि मैं बुद्धिमान; उपद्रव शुरू हो गया। दूध पानी में मिल गया, फिर बुद्धि कितनी भी शुद्ध क्यों न हो। मनुष्य ने कहा मैं चरित्रवान - दूध पानी मिल गया। अब कितना ही निर्मल चरित्र हो। किसी के साथ चैतन्य जुड़ा कि चेतना अशुद्ध हो गई। 'मैं एक विशुद्ध बोध हूं। न तो चरित्रवान हूं, न चरित्रहीन हूं, न मैं सुंदर हूं, न असुंदर हूं; न जवान हूं, न वृद्ध हूं - किसी से मेरा कोई तादात्म्य नहीं है। मैं इन सबका द्रष्टा मात्र हूं।'
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जैसे दीपक प्रज्ज्वलित किया तो रोशनी मेज पर, कुर्सी पर, बिस्तर पर - सब पर पड़ती है। लेकिन ज्योति न तो मेज है, न कुर्सी है और न ही बिस्तर है। सब प्रकाशित है, ज्योति अलग है। शुद्ध चैतन्य बोध है और ये बोध बुद्धि पर भी पड़ता है, देह पर भी पड़ता है; कृत्य पर भी पड़ता है, लेकिन चेतना इन सबसे अलग है। जब तक मनुष्य किसी से जुड़ेगा, तब तक अहंकार जन्म लेगा। अहंकार है चैतन्य का अन्य से तादात्म्य। जैसे ही समस्त तादात्म्य तोड़ दिए, वैसे ही चेतना स्वयं में थिर हुयी; मुक्ति का क्षण आ गया।
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