सोमवार, 4 जून 2018

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होइ ।*
*जब यहु आपा मिट गया, तब दूजा नाहीं कोइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

योगी नौकरों से, पुत्रों से, पत्नियों से, पोतों से और संबंधियों से हंसकर धिक्कारे जाने पर भी जरा भी विकार को प्राप्त नहीं होता है। 
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वह जो ज्ञानी पुरुष है, उनका यदि स्वयं के सेवक भी अपमान कर दें तो भी वे क्रोधित नहीं होते हैं। इस श्लोक में सेवक को ही विशेष रूप से कहा है? क्योंकि सेवक अंतिम है, जिससे हम अपेक्षा करते हैं, कि हमारा अपमान कभी नहीं कर सकता, क्योंकि सेवक और हमारा अपमान कर दे? सेवक तो हमारा खरीदा हुआ है, स्तुति के लिए ही है। वह हमारी निंदा कर दे? असंभव। वह हंसकर धिक्कार कर दे। यह असंभव है। हम और सबका धिक्कार चाहे स्वीकार भी कर लें, अपने नौकर का धिक्कार तो स्वीकार न कर सकेंगे हम उसे कहेंगे, अपनी अधिकार में रह ! हम उसे कहेंगे कि जिस दोने में खाया, जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। हम कहेंगे, जिसका नमक खाया उसका बजाया नहीं। उर्दू में शब्द हैं नमकहराम ! हम बड़े क्रोधित हो जायेंगे, यदि सेवक हमारा अपमान करदे, परन्तु बुद्ध पुरुष को यदि, उसका सेवक भी अपमान करदे, तो भी कोई भेद नहीं। 
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इसलिए अष्टावक्र जी कहते हैं, सेवक भी यदि धिक्कार कर दे, और साधारण धिक्कार नहीं, हंसकर धिक्कार कर दे। हंसी और भी जहर हो जाती है धिक्कार में मिल जाए तो; व्यंगात्मक हो जाती है, गहरी चोट करती है। फिर वो भी अपने सेवक से? यह तो अंतिम है जिससे हम अपेक्षा करते हैं। हां, हमारा स्वामी यदि धिक्कार कर दे तो हम सहन कर लें, करना पड़े। मूल्यवान है न सहन करना। स्वामी धिक्कार भी दे तो भी हमे धन्यवाद देना पड़ता है।
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अष्टावक्र कहते हैं, 'योगी नौकर से, पुत्रों से .......।’
अपने पुत्र से तो कोई धिक्कार की संभावना नहीं मानता। बेटा अपना और हंस दे, धिक्कार कर दे? हम सबको माफ कर सकते हैं, परन्तु अपने बेटे को तो न कर सकेंगे। क्योंकि बेटा तो हमारा ही विस्तार है। हमारा ही एक रूप, हमीं पर हंस दे? यह तो जैसा अपना ही हाथ अपने को चांटा मारने लगे तो हम कैसे सहन कर सकेंगे? यह तो बहुत ज्यादा हो जाएगा।
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अष्टावक्र कहते हैं, अपनी पत्नी से, पोतों से, संबंधियों से हंसकर धिक्कारे जाने पर भी जरा विकार को प्राप्त नहीं होता। क्योंकि जिस के भीतर ज्ञान घट गया, उसके लिए न कोई अपना रहा, न कोई पराया। कौन बेटा, कौन बाप? जिसे ज्ञान घटा, कौन स्वामी, कौन सेवक? जिसे ज्ञान घटा, कौन पत्नी, कौन पति? 
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जिसे ज्ञान घटा, एक ही बचा। और जिसे ज्ञान घटा वह तो मिट गया। वह घाव ही न रहा जिस पर चोट लगती है, धिक्कार की, अपमान की, असम्मान की, कोई हंस दे इस बात की। वह घाव ही भर गया, वह घाव ही न रहा। अहंकार न रहा तो अपमान जरा भी पीड़ा नहीं देता। किंचित भी अंतर नहीं पड़ता। मैं ही नहीं बचा तो हम चोट कैसे करेंगे? हम जो चोट कर रहे हैं, वह व्यर्थ जा रही है, खाली जा रही है। वहां कोई है नहीं जो चोट को पकड़े, जिसमें चोट चुभे।

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