मंगलवार, 5 जून 2018

= १२४ =



卐 सत्यराम सा 卐
*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥* 
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com

शास्त्रों में एक वचन है, मेरे को यह कर्तव्य है। ममेदं कर्तव्य, ऐसे निश्चय का नाम ही संसार है। जब तक हमे लगता है, ऐसा मेरा कर्तव्य, ऐसा मुझे करना ही पड़ेगा, तब तक हम संसार में हैं। जिस दिन हमे लगा कि मेरास्मृक्या कर्तव्य? जिसने सारे को रचा, उसका ही होगा। मैं तो थोड़ा सा अपना साझेदार हूँ, जो दिया, अदा कर देता हूं। कर्तव्य नहीं, अभिनय। जिस दिन हम कर्ता न होकर अभिनेता होकर जीने लगे, बस उसी दिन क्रांति घट गई।
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जब तक हम सोचते हैं, ऐसा मेरा कर्तव्य है, ऐसा मुझे करना है, करना पड़ेगा, ऐसा मेरा दायित्व है। दो बच्चों का पिता हूं पत्नी है, कर्तव्य है, पूरा करना है, तब तक हम संसार में जी रहे हैं। पत्नी छोड़ कर नही भागना, बच्चे छोड़ कर नही भागना। पत्नी और बच्चे में संसार नहीं है। मेरे को यह कर्तव्य है, ऐसे निश्चय का नाम संसार है।
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*कर्तव्यतैव संसारो* जब तक कर्तव्य, तब तक संसार। कर्तव्य को ही छोड़ दो। पत्नी को रहने दो, बच्चे को रहने दो। दफ्तर भी जाओ, दुकान भी जाओ, काम भी करो। कर्ता परमात्मा को बना दो, तुम कर्ता न रहो। तुम कहो, जो लीला तुझे दिखानी, जो अभिनय तूने दे दिया, जिस नाटक में पात्र बुना दिया, पूरा कर देंगे। राम मत बनो। रामलीला के राम ही रहो। मंच पर जो खेल खेलने को कहा गया है, उसे पूरा कर दो। उसे परिपूर्ण हृदय से पूरा कर दो, परन्तु कर्ता की तरह नहीं।
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*न तां पश्यन्ति सूरयः।* जो ज्ञानी हैं, वे कर्तव्य को देखते ही नहीं। उन्हें कोई कर्तव्य नहीं दिखाई पड़ता। जो परमात्मा करवाता है, वे करते हैं। जो नहीं करवाता, वे नहीं करते। उनका कोई दायित्व नहीं। 
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इसलिए तो अष्टावक्र उन्हें कहता है स्वच्छंद, 
अर्थात *शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।*
ऐसी चार उनकी लक्षणा है। 
*शून्यकारा*, वे अपने भीतर शून्य रहते हैं। बाहर अनेको रूप धर लेते हैं, भीतर शून्य बने रहते हैं। क्रोध में उन्हें पाओ, बुद्ध पुरुष को भागते देखो डंडा लिए, तब भी भीतर शून्याकारा। *शून्याकारा*, वह भीतर तो शून्य बना रहता; बाहर कुछ भी व्यवहार करे। 
*निराकारा*, बाहर कैसा ही अभिनय करे, भीतर निराकार बना रहता है। *निर्विकारा*, हम यदि उन्हें शराबघर में देखें कि वेश्यालय में, कोई भेद नहीं पड़ता। वह भीतर निर्विकार(विकार रहित) बना रहता है। 
*निरामया* हम उसे कैसी भी दशा में देखें, वह दुखरहित होता हैं। बुद्धपुरुष मृत्यु में भी मरता नहीं । दुख में दुखी नहीं होता, निरामयाः। बुद्धपुरुष को पहचानने के लिए हमे भी बुद्धपुरुष ही होना होगा। 
*जैसे को जानना हो, वैसा होना ही उपाय है।*

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