मंगलवार, 5 जून 2018

= १२३ =



卐 सत्यराम सा 卐
*गुण आकार जहाँ गम नाहीं, आपै आप अकेला ।*
*दादू जाइ तहाँ जन जोगी, परम पुरुष सौं मेला ॥* 
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साभार ~ oshogeetadarshanvol4.wordpress.com

धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता है, और दुखी होकर भी दुखी नहीं होता है। उसकी आश्चर्यमय दशा को वैसे ही ज्ञानी जानते हैं। धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं होता।
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इसका अर्थ क्या होगा, क्योंकि संतोष और संतोष में भेद है। एक संतोष है, जो वही खट्टे अंगूर वाला संतोष है। नहीं मिला इसलिए किसी तरह अपने को संतुष्ट कर लिया। एक सांत्वना है, एक भुलावा है कि क्या करें, मिलता तो है नहीं, रोने से भी सार क्या है? इसलिए मन मारकर बैठ गए। अब यह भी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती कि हार गए हैं। हार भी क्या स्वीकार करनी? यह हार का रोना भी क्या रोना? तो अपनी हार को ही ले कर बैठ गए। अपनी हार को ही गले का हार बना कर बैठ गए। इसका ही गुणगान करने लगे। कहने लगे कि रखा ही क्या है? संसार में? है क्या? संतुष्ट हो गए। कहते हैं, हम तो संतुष्ट हैं।
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एक ऐसा संतोष है जो हारे हुए मन की सुरक्षा करता है, हारे हुओं की सुरक्षा बनता है। और जो जीवन के संघर्ष में, चुनौती में, विजययात्रा पर, अंतर्यात्रा पर निकलने का साहस नहीं रखते उनको जड़ बना देता है। यह एक तरह की मदिरा है, जिसको पीकर बैठ गए, कहीं जाने की आवश्यकता न रही।
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जब अष्टावक्र जी कहते हैं, संतुष्टोऽपि न संतुष्ट वह जो धीर पुरुष है, संतुष्ट होकर भी इस अर्थ में संतुष्ट नहीं है। उसका संतोष बड़ा और है। उसका संतोष आनंद से जन्मता है, हार से नहीं। उसका संतोष अंतर रस से उपजता है। उसका संतोष सात्वना नहीं है। उसका संतोष उदघोषणा है विजय की। जीवन को जाना, जीया, पहचाना; उस पहचान से आया संतोष। उसका संतोष, आनंद नहीं मिला इसलिए मन मारकर बैठ गए ऐसा नहीं है, आनंद मिला इसलिए संतुष्ट है। उसका संतोष आनंद का पर्यायवाची हैं। 
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दूसरी बात. जो पहला संतोष है, वह हमे रोक देगा, हमारी गति को मार देगा; वह हमे आगे न बढ़ने देगा। दूसरा जो संतोष है, वह मुक्त है। वह गति को मारता नहीं, वह गति को बढ़ाता है। हम में और जीवन ऊर्जा आती है। हम जितने आनंदित होते हैं, उतने ज्यादा आनंदित होने की क्षमता और पात्रता आती है। हम जितना नाचते हैं, उतना नाचने की कुशलता बढ़ती है।
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*सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।*
*संतुष्ट होकर भी इस अर्थ में संतुष्ट नहीं।*
और एक अर्थ एक तो संतोष है, जो असंतोष के विपरीत है। और एक ऐसा संतोष है जो असंतोष के विपरीत नहीं। एक ऐसा संतोष है, जो असंतोष से विपरीत है इस अर्थ में कि फिर हमे जरा भी असंतुष्ट नहीं होने देता। परन्तु तब तो गति मर जाएगी।
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ज्ञानी पुरुष यदि कभी उदास हो, दुखी हो, उसकी आंख में आंसू भी आ जाएं तो जल्दी निष्कर्ष नही करना। वह अपने लिए नहीं रोता।
*धीर पुरुष संतुष्ट होकर भी संतुष्ट नहीं, दुखी होकर भी दुखी नहीं होता।’* 
तो कितने ही दुख में हम पाए बुद्ध पुरुष को, वह दुखी नहीं है। उसके भीतर अब दुख का कोई वास नहीं रहा। अहंकार गया, उसी दिन अहंकार की छाया दुख भी गया। उसकी उस आश्चर्यमय दशा को वैसे ही ज्ञानी जान सकते हैं।
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*अष्टावक्र ठीक कहते हैं, "तस्य तस्याश्चर्यदशां" ऐसे ज्ञानी पुरुष की बड़ी आश्चर्यमय दशा है। और हम उसे समझ न पाएंगे, क्योंकि हमारी वैसी दशा का कोई भी अनुभव नहीं है।*
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तस्याश्चर्यदशां तां तादृशा एव जानते॥ 
उसे तो वे ही जान सकते हैं, जिन्होंने वैसी दशा का अनुभव किया हो। बुद्ध को बुद्ध जान सकते हैं। जिन को जिन जान सकते हैं। कृष्ण को कृष्ण जान सकते हैं। उस परम दशा को जानने का और कोई उपाय नहीं है, जब तक कि वह परम दशा हमारे भीतर न घट जाए।

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