मंगलवार, 5 जून 2018

= माया मध्य मुक्ति का अंग ३५(६९-७२) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*अर्थ आया तब जानिये, जब अनर्थ छूटे ।*
*दादू भाँडा भरम का, गिरि चौड़े फूटे ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*माया मध्य मुक्ति का अंग ३५*
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आतम अक्षर माया मात्रा, अर्थ लगैं परवाणि१ । 
रज्जब विमुखे बे अरथ, ऊभय सु मिथ्या जाणि ॥६९॥ 
अक्षर तथा मात्राओं का अर्थ ठीक लगता है तब तो प्रमाण१ रूप अर्थात ठीक है और बिना अर्थ है तो मिथ्या ही जानना चाहिये, वैसे ही जीवात्मा और माया यदि भगवत् अर्थ में लगते हैं अर्थात जीवात्मा परम अर्थ रूप ब्रह्म के चिन्तन में संलग्न है और माया परमार्थ में लगती है तब तो ठीक है । जीवात्मा भगवद् विमुख है तथा माया परमार्थ रहित है, तो दोनों ही मिथ्या ही जानना चाहिये अर्थात व्यर्थ है । 
रज्जब अर्थ लगे अक्षर स१खर२, केवल मात्रा३ संग । 
त्यों ऋद्धि४ रहित अथवा सहित, अविगत५ भाव६ अभंग७ ॥७०॥ 
अक्षर का अर्थ लगने से तो चाहे वह स्वर३ रहित अकेला हो वा स्वर सहित हो, तेज२ युक्त१ ही माना जाता है अर्थात अच्छा है, वैसे ही जिस संत में मन इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म५ का प्रेम६ अखण्ड७ है वह माया४ रहित हो या सहित तेजस्वी ही माना जाता है और वही माया मध्य मुक्त है । 
मान हुं मात्रा१ संग सदा, अक्षर अर्थ स्थूल । 
रज्जब छक२ छूटे बिना, उभय३ न विनशैं मूल ॥७१॥ 
यदि अक्षर के साथ अर्थ है तो मानो मात्रा उसके साथ ही है, वैसे ही जीवात्मा में आशा है तो मानो स्थूल शरीर उसके साथ ही है । स्वर१ हीन अक्षर ही अर्थ हीन होता है, अत: अर्थ ही स्वर का मूल कारण है, वैसे ही स्थूल शरीर का मूल कारण आशा है, जब तक अर्थ और आशा२ नष्ट न हो तब तक मात्रा और स्थूल शरीर ये दोनों३ भी नष्ट नहीं होते । ज्ञानी की आशा नष्ट हो जाती है इस कारण वह माया में रहकर मुक्त रहता है । 
रज्जब दामिनी१ देह निज, चमक मनोरथ माँहिं । 
सो बीजली वपु२ गिरे बिन, अग्नि सु लागे नाँहिं ॥७२॥ 
अपना शरीर२ ही बिजली१ है मन का मनोरथ ही उसकी चमक है, बिजली पड़ने पर अग्नि लगता है, वैसे ही उक्त बिजली गिरे बिना अर्थात देहाध्यास नष्ट हुये बिना ज्ञानाग्नि प्रकट नहीं होता । ज्ञान होने पर ही माया मध्य मुक्ति सिद्ध होती है ।
(क्रमशः)

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