बुधवार, 13 जून 2018

= १३७ =


卐 सत्यराम सा 卐 
*सुन्दर सद्गुरु यों कहें, भ्रम ते भासे और ।*
*सीपि मांहि रूपौ द्रसे, सर्प रज्जु की ठौर ॥*
*रज्जु मांहि जैसे सर्प भासे,* 
*सीपि में रूपौ यथा ।*
*मृग तृष्णा का जल बुद्धि देखे,* 
*विश्व मिथ्या है तथा ॥*
*जिनि लह्यो ब्रह्म अखंड पद,* 
*अद्वैत सब ही ठाम हैं ।*
*दादूदयालु प्रसिद्ध सद्गुरु,* 
*ताहि मोर प्रणाम हैं ॥*
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साभार ~ Oshoganga
यह सम्पूर्ण दृश्य जगत भ्रम मात्र है, यह कुछ नहीं है, ऐसे निश्चय से युक्त पुरुष दृश्य की स्फूर्ति से भी रहित हो जाता है और स्वभाव से ही शांत हो जाता है। यह जगत रूपी प्रपंच कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर अलक्ष्य स्फुरणवाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से ही शांत होता है।
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एक-एक शब्द को ठीक से समझना। जैसा अष्टावक्र कहें वैसा ही समझना। अपने अर्थ मत डालना। पहला शब्द है, *प्रपंच*।
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*भ्रमभृतमिदं सर्वं* यह सब जो जगत दिखाई पड़ता, सच नहीं है। जैसा दिखाई पड़ता वैसा नहीं है। हम वैसा ही देख लेते हैं जैसा देखना चाहते हैं। हम अपनी कामना आरोपित कर लेते हैं। जैसा है वैसा तो तभी दिखाई पड़ेगा जब हमारे मन में कोई भी विचार न रह जायें, जब हमारी आंखें बिलकुल खाली हों, शून्य हों; जब हमारी आंख पर कोई भी बादल न हो पक्षपात के, वासना के, कामना के। तो ही जो जैसा है वैसा दिखाई पड़ेगा। प्रपंच का अर्थ होता है, जो जैसा नहीं है, उसको वैसा देख लेना। 
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जब तक हमारे भीतर प्रक्षेपण विधमान है, तब तक हम जो भी देखेंगे वह झूठ हो जायेगा। और यह जो सब हमे अब तक दिखाई पड़ा है, यह सब बिलकुल असत्य है। समझ लेना ठीक से, इसका यह मतलब नहीं है कि यह नहीं है। कि हम जायेंगे तो दीवार से निकलना चाहेंगे तो निकल जायेंगे। सिर टूट जायेगा, दीवार है। इस भ्रांति मे नही पड़ना।

*किंचिन्नास्तीति निश्चयी।* बिलकुल भी ऐसा नहीं है, ऐसा निश्चयपूर्वक जानकर।
इति निश्चयी। निश्चयपूर्वक जानने को खयाल में ले लो। सुना तो तुमने भी है बहुत बार कि यह सब माया। यह तो सदियों से इस देश में दोहराया जा रहा है कि सब माया। लेकिन सुनने से निश्चय नहीं होता। विश्वास भी कर लो तो भी निश्चय नहीं होता। विश्वास के भीतर भी अविश्वास का कीड़ा सरकता रहता है। तुमने लाख मान लिया कि सब माया है लेकिन भीतर? भीतर गहरे तो तुम जानते हो कि है तो सच। शास्त्र कहते हैं सो मान लिया। हिंदू घर में पैदा हुए सो मान लिया। बौद्ध घर में पैदा हुए तो मान लिया। लेकिन यह मानना है, यह निश्चय नहीं है। और जब तक यह निश्चय न हो तब तक काम न पड़ेगा।
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*अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति॥*
और अलक्ष्य स्फुरणवाला शुद्ध पुरुष स्वभाव से शांत होता है।
यह शब्द बड़ा अदभुत है, अलक्ष्य स्फुरणवाला। इसे समझ लिया तो अष्टावक्र का सब सारभूत समझ लिया। हम जीते हैं, अपनी चेष्टा से। हम जीते हैं अपनी योजना से। हम जीते हैं प्रयास से। जीने की यह जो हमारी चेष्टा है, यह जो प्रयास है, यही हमें तनाव से भर देता है, संताप और चिंता से भर देता है। इतना विराट अस्तित्व चल रहा है, हम देखते हैं फिर भी अंधे हैं। इतना विराट अस्तित्व चल रहा है, इतनी व्यवस्था से चल रहा है, इतना संगीतपूर्ण, इतना लयबद्ध चल रहा है, परन्तु हम सोचते हैं, हमे अपना जीवन स्वम् चलाना पड़ेगा।
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अष्टावक्र कहते हैं, छोड़ दो स्फुरण पर। जीयो सहज स्फुरण से। मत करो योजना। मत बनाओ बड़े किले। मत खड़े करो बड़े स्वप्न। परन्तु लोग समझते हैं कि यह आलस्य की शिक्षा है। यह आलस्य की शिक्षा नहीं है। यह अकर्मण्यता की शिक्षा नहीं है। यह इतनी ही शिक्षा है कि कर्ता हम न रहे, कर्ता परमात्मा हो। परन्तु लोग अपने ही ढंग से समझते हैं।
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अलक्ष्यस्फुरणा का अर्थ होता है, हम स्वभाव पर छोड कर देखें, क्षण क्षण जीयो। 

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