शुक्रवार, 15 जून 2018

= १४२ =


卐 सत्यराम सा 卐
*आत्मा राम है, राम है आत्मा,* 
*ज्योति है युक्ति सौं करो मेला ।*
*तेज है सेज है, सेज है तेज है,* 
*एक रस दादू खेल खेला ॥* 
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शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।
क्व विधिः क्व वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥ १८- ७१
(अष्टावक्र: महागीता) 
भावार्थ : जो शुद्ध स्फुरण रूप है, जिसे दृश्य सत्तावान नहीं मालूम पड़ता, उसके लिए विधि क्या, वैराग्य क्या, त्याग क्या और शांति भी क्या। 
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*दृश्यभाव को नहीं देखते हुए शुद्ध स्फुरणवाले को कहां विधि है, कहां वैराग्य है, कहां त्याग, कहां शमन ?*
जो व्यक्ति अपनी अंतर्स्फुरणा से भर गया है, स्वस्फुरण वाले को, शुद्ध स्फुरण वाले को। स्फुरण का अर्थ होता है जो अपने आप होता है, हमारे किए नहीं होता। स्फुरण का अर्थ होता है, जिसको हमें करना नहीं पड़ता। अचानक हम पाते हैं कि हो रहा है। हम करेंगे तो हम बीच में अड़े रहेंगे। हम करेंगे तो हम स्वयं को ही अटकाते रहेंगे, हमने यदि चेष्टा की कि बंध जाये लय, फिर न बंधेगी। हम केवल भूलें, हम केवल सुणे। सुनते सुनते अनायास एक स्फुरणा होती है, भीतर कोई द्वार खुल जाता, कोई रोशनी झांकती हैं। भीतर कोई स्वर प्रविष्ट हो जाता। और जब ये घटित होगा, उस क्षण कुछ घटता है। *उस क्षण आंसू बह सकते हैं, उस क्षण तरंग उठ सकती है। उस क्षण रोमांच हो सकता। उस क्षण रोआं-रोआं पुलकित हो सकता। उस क्षण एक दर्शन मिल सकता है।* 
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क्षण भर को ही सही, परन्तु जैसा है उसका एक क्षण को आभास हो सकता है। जैसे कोई बिजली कौंध गई और अंधेरी रात में रोशनी हो गई और सब दिखाई पड़ गया क्षण भर को। यद्यपि क्षण भर को दिखाई पड़ेगा परन्तु पूरे जीवन का स्वाद बदल सकता है। क्योंकि जो दिखाई पड गया, फिर पीछा करेगा। *फिर बार-बार उस दिशा में जाने का रस जागेगा, स्वाद जागेगा, आकांक्षा होगी, अभीप्सा होगी, प्रतीक्षा होगा, पुकार होगी, प्रार्थना होगी। जो एक बार अनुभव में हुआ, फिर उसे छोडा नहीं जा सकता। फिर बार - बार हम खिंचे किसी अदृश्य चमत्कार में उसी केंद्र की तरफ चलने लगेंगे। परन्तु यह होगा स्फुरणा से, यह चेष्टा से नहीं होगा।

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