शुक्रवार, 15 जून 2018

= १४१ =



卐 सत्यराम सा 卐
*करता है सो करेगा, दादू साक्षीभूत ।*
*कौतिकहारा ह्वै रह्या, अणकर्ता अवधूत ॥* 
*दादू राजस कर उत्पत्ति करै, सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

ये योग की मान्य धारणा है कि जब तक चित्त-वृत्तियों का निरोध न हो जाए तब तक चेतना स्वयं में थिर नहीं हो सकती । जब चित्त की सारी वृत्तियां शांत हो जाती हैं तो चेतना स्वयं को जान लेती है । सूत्र इसके विरोध में है । 
*'तू असंग है, क्रिया-शून्य है, स्वयं-प्रकाश है, निर्दोष है । तेरा बंधन ये ही है कि तू समाधि का अनुष्ठान करता है ।'*
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समाधि का अनुष्ठान हो नहीं सकता, समाधि का आयोजन हो ही नहीं सकता । क्योंकि समाधि मनुष्य का स्वभाव है । चित्त-वृत्ति तो जड़ स्थिति है । चित्त-वृत्तियों का निरोध ऐसे ही है जैसे घर में अँधेरा हो और मनुष्य अंधेरे से लड़ने लगे । इसे गहराई से समझें । 
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ले आये हथियार, बुला लिए मजबूत लड़ाकू आदमी और धक्के देने लगे अंधेरे को; अंधेरा घर से जाएगा क्या? यद्यपि ये परिभाषा सही है कि अंधेरे का न हो जाना प्रकाश है । लेकिन इस परिभाषा को समझ लेना आवश्यक है । अँधेरे का न हो जाना प्रकाश है, चित्त-वृत्तियों का निरोध हो जाना योग है - ये सच है लेकिन इस सत्य को ठीक ढंग से समझना होगा । 
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अंधेरे से लड़ने में संलग्न न हो मनुष्य, वस्तुतः प्रकाश की उपस्थिति अँधेरे को समाप्त करती है । प्रकाश ले आये मनुष्य, अंधेरा स्वतः समाप्त हो जाता है । अँधेरा है ही नहीं, अंधेरा केवल अभाव है । चेतना के स्वयं का विस्मरण कर देने के कारण ही चित्त-वृत्तियां उठ रही हैं । चेतना स्वयं में थिर हो जाए, चित्त-वृत्तियां स्वयमेव शांत हो जाएंगी । 
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समझा स्वयं को शरीर, तो शरीर में वासनाएं उठती हैं । समझा स्वयं को मन तो मन में वासनाएं उठती ही हैं । जिसके भी साथ चेतना तादात्म्य कर लेती है, उसकी वासनाएं चेतना में भी प्रतिच्छायित होती हैं; प्रतिबिम्बित होती हैं । वैसा ही रंग चेतना पर भी चढ़ जाता है । 
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जैसे स्फटिक मणि को कोई रंगीन पत्थर के पास रख दे, तो पत्थर का रंग मणि में झलकने लगता है । ये सान्निध्य दोष है । मणि रंगीन होती नहीं, लेकिन रंगीन प्रतीत होने लगती है । अंधेरा केवल प्रतीत होता है, है नहीं । प्रकाश की अनुपस्थिति के कारण अंधेरा है । अंधेरे की अपनी कोई सत्ता नहीं है, वास्तविक अस्तित्व नहीं है । इसलिए मनुष्य अंधेरे से लड़ने में संलग्न न हो । 
*'तू असंग है, क्रिया-शून्य है, स्वयं-प्रकाश और निर्दोष है ।'*
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सूत्र कहता है कि मनुष्य निर्दोष है । भूल कर भी मनुष्य स्वयं को कभी पापी न समझे । लाख साधू-संत कहें कि तुम पापी हो, बुरे कर्म किये हैं - उनका पश्चाताप करो - इस वचन को ध्यान में रखे मनुष्य - कि तू क्रिया-शून्य है, इसलिए कर्म तू करेगा कैसे?

जीवन में छह लहरें, ऊर्मियां हैं - भूख-प्यास, शोक-मोह, जन्म-मरण ये छह तरंगें हैं । 
*भूख-प्यास,* शरीर की तरंग है, यदि शरीर न हो तो; न भूख होगी, न प्यास होगी । ये शरीर की आवश्यकताएँ हैं । 
*शोक-मोह,* मन की तरंग हैं । कोई छूट जाता है तो दुःख होता है, क्योकि मन पकड़ लेता है; राग बना लेता है । कोई प्रियजन मिल जाए तो सुख होता है, कोई प्रियजन बिछड़ जाए तो दुःख होता है । ये सब मन के खेल है । जब मन न रहा तो फिर कोई शोक नहीं, कोई मोह नहीं; ये सब मन की तरंगे हैं । 
*जन्म-मरण,* जन्म-मरण प्राण की तरंगे हैं । प्रतिपल जन्म और मृत्यु घटित हो रही है, आती हुयी श्वास जीवन है, जाती हुयी श्वास मरण है । ये प्राण की तरंगें हैं । ये छह ऊर्मियां हैं, और चेतना इन सबके पार; इनकी द्रष्टा है । 
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शरीर बाहर की परिधि है, मन उसके भीतर की परिधि है; प्राण उसके और भीतर की परिधि है । ऐसा भी हो सकता है कि शरीर अपंग हो जाए, तब भी मनुष्य जीवन जीता है । मन विक्षिप्त हो जाए, पागल हो जाए; तब भी मनुष्य जीवित रहता है । लेकिन श्वास रुक जाने पर मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । शरीर के अंग कट जाएं, मनुष्य जीवित रहेगा । मस्तिष्क निकाल लिया जाए, तब भी मनुष्य जीवित रहता है । लेकिन श्वास बंद हो जाये और सब मौजूद हो, मनुष्य जीवित नहीं रहेगा । ये छह तरंगे हैं, चेतना इनके पार; द्रष्टा मात्र है । 
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*'तू असंग है ।'* कोई मनुष्य का संगी-साथी नहीं है । शरीर भी संगी-साथी नहीं है । श्वास भी संगी-साथी नहीं है । मन के विचार और भीतर कोई संगी-साथी नहीं है, बाहर का तो कोई संगी-साथी कैसे होगा? पति, पत्नी, परिवार, प्रियजन कोई भी संगी-साथी नहीं है । साथ में हो सकते हैं, क्योंकि साथ होना वाह्य घटना है, संगी होना संभव नहीं है । *'तू असंग, क्रिया-शून्य है ।'* इसलिए कर्म के जाल का कोई प्रश्न ही नहीं है । 
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ये सूत्र कहता है कि अभी इसी क्षण हो सकती है मुक्ति । तो फिर जन्मों-२ जो कर्म किये हैं, उनका क्या होगा? उनसे छुटकारा कैसे होगा? कर्म चैतन्य ने कभी किये ही नहीं । भूख के कारण शरीर ने किये होंगे, प्राण के कारण प्राण ने किया होगा; मन के कारण मन ने किया होगा । चेतना ने कभी कुछ किया नहीं है । चेतना सदैव असंग और अकर्म में है । 
*चेतना ने कर्म कभी किया नहीं है, चेतना द्रष्टा-मात्र है । इसीलिये मुक्ति इसी क्षण हो सकती है ।*

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