शनिवार, 23 जून 2018

= १५७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय ।*
*दादू गुरु गोविन्द बिन, तो भी तिमिर न जाय ॥* 
==============================
साभार ~ Astro Thakur Sp Dogra

*------ गुरु बिन दान, हराम ------*
दुनीचंद नामक एक धनाढ्य सेठ था। वह पांच लाख रुपये का मालिक था। उस जमाने की यह प्रथा थी, कि जिसके पास जितने लाख रुपये होते थे, उसकी छत पर उतने ही ध्वज लहराते थे। इस प्रकार से दुनीचन्द की छत, पांच ध्वजाओं से सुषोभित थी। एक दिन सेठ दुनीचन्द ने अपने पिता के श्राद्ध के उपलक्ष्य में, विषाल भण्डारे का आयोजन किया। सैंकड़ों लोगों ने इसमें भोजन किया।
.
घूमते-फिरते श्री गुरु नानक देव जी भी वहां पहुंच गए। सेठ जी ने बड़े ही विनम्र भाव से उनका आदर सत्कार किया। नानक साहब ने सेठ से पूछा- सेठ जी ! भण्डारे का आयोजन किस खुशी में हो रहा है? सेठ ने जवाब दिया- आज मेरे पिता का श्राद्ध है, इसलिए २०० गरीब आदमियों के भोजन हेतु भण्डारे का आयोजन किया गया है। नानक साहब ने उनसे फिर पूछा- क्या आपके पिता जिन्दा हैं? सेठ जी हंसते हुए कहने लगे- महात्मा जी ! आप ये कैसी बात कर रहे हैं? क्या आपको पता नहीं, कि किसी का श्राद्ध उसकी मौत के बाद ही किया जाता है। नानक साहब बोले- परन्तु आपके पिता का इससे क्या सरोकार। यह भोजन जो आपने गरीबों को खिलाया है, यह आपके पिता को तो मिला ही नहीं। वह तो अब भी भूखा बैठा है।
.
सेठ ने आश्चर्यचकित होकर नानक साहब से पूछा- आप यह कैसे कह रहें हैं, कि मेरे पिता को भोजन नहीं मिला और वह भूखे हैं। क्या आप जानते हैं कि मेरे पिता कहां हैं? नानक साहब कहने लगे- आपका पिता यहां से पचास कोस दूर जंगल में एक झाड़ी में लकड़बघा बना बैठा है। तुमने २०० आदमियों को भोजन कराया, ताकि वह भोजन तुम्हारे पिता को मिले। परन्तु वह तो कई दिनों से भूखा है। अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा, तो जंगल में जाकर स्वयं अपनी आंखों से देख लो।
.
सेठ ने नानक साहब से पूछा- मैं यह कैसे जानूंगा कि वह लकड़बग्घा ही मेरे पिता हैं? नानक साहब ने आशीर्वाद दिया और कहा- जब तुम जंगल में उसके सामने जाओगे, तो मेरे आशीर्वाद के प्रताप से वह तुमसे इंसान की भाषा में बात करेगा। अपनी जिज्ञासा को मिटाने के लिए सेठ जंगल में चला गया। वहां जाकर उसने देखा, एक लकड़बग्घा एक झाड़ी में बैठा था। सेठ ने उससे कहा- पिता जी ! आप कैसे हैं? लकड़बग्घे ने जवाब दिया- बेटा ! मैं कई दिनों से भूखा हूं। मेरे शरीर में बहुत दर्द और तकलीफ है। दर्द मे मारे मैं चलने-फिरने में भी असमर्थ हूं।
.
सेठ ने आश्चर्य से लकड़बग्घे से पूछा- पिताजी ! आप तो बहुत नेक इंसान थे। आपकी धार्मिक प्रवृत्ति जग जाहिर थी। आपने बहुत दान-पुन्य किया था, फिर भी आपको लकड़बग्घे की योनी क्यों प्राप्त हुई? लकड़बग्घे ने जवाब दिया- बेटा ! यह सत्य है, कि मैंने अपनी तमाम उम्र नेक और परोपकार कर्मों में बिताई। परन्तु मेरे अन्त समय में मुझे मांस खाने की इच्छा थी, जिसके फलस्वरुप मुझे लकड़बग्घे का जन्म मिला। इस प्रकार लकड़बग्घे से बातचीत करके, सेठ जंगल से घर लौट आया। और अपने परिवार सहित तुरन्त नानक साहब से मिला। 
.
नानक साहब से मिल कर सेठ नतमस्तक होकर उनसे कहने लगा- आप पूर्ण पुरुष हैं। आपने मेरा भ्रम दूर करके मुझ पर बहुत भारी अहसान किया है। अन्यथा मेरे पिता की ही तरह मेरा जीवन भी अकारथ चला जाता। अब आप कृपया करके हमें वह रास्ता बतायें, जिस पर चल कर हम अपने जीवन को सार्थक कर सकें। नानक साहब ने अपार दया करते हुए उन्हें नाम की बक्शीश कर दी।
------ गुरु बिन माला फेरते ------
------ गुरु बिन देते दान ------
------ गुरु बिन दान हराम है ------
------ देखो वेद पुराण ------
.
गुरु धारण किए बगैर, अज्ञानवश किया गया दान, हमारे अहंकार को पुष्ट करता है। अहंकार जीव को अधोगति की ओर ले जाता है। वेद शास्त्र इस बात की पुष्टि करते हैं। राजा नृप एक करोड़ गाय रोजाना दान में देते थे। परन्तु ऋषियों के श्राप से उन्हें अगला जन्म गिरगिट का मिला।
.
*------ सन्तमत विचार ------*
संत कहते हैं, कि दान हमेशा योग्य या सुपात्र को ही करना चाहिए। मन मर्जी से किये गये दान का पता नहीं लगता, कि वह सुपात्र को मिला या नहीं। भूल से यदि दान कुपात्र को चला जाता है, और वह उससे कोई पाप या बुरा कर्म कर देता है, तो कुपात्र से ज्यादा पाप दानी को लगता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें