शनिवार, 23 जून 2018

= १५८ =

卐 सत्यराम सा 卐 
*दादू बुरा न बांछै जीव का, सदा सजीवन सोइ।*
*परलै विषय विकार सब, भाव भक्ति रत होइ ॥* 
*सतगुरु संतों की यह रीत, आत्म भाव सौं राखैं प्रीत ।*
*ना को बैरी ना को मीत, दादू राम मिलन की चिंत ॥* 
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साभार ~ Pardeep Grover

*क्रिया नहीं, भाव शुद्धि आवश्यक-*

गीता जी में भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को एक तप बताया है । ऐसा तप बताया है, जिसमें एक पैसे का भी खर्च नहीं है, जरा भी दुःख सहन करना नहीं है और आपको अतिशय पुण्य मिलेगा और आपका कल्याण होगा । ऐसा एक तप बताया है- 
*'अर्जुन ! सबमें सद्भाव रखो- भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।'*
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सद्भाव ही बड़ा तप है । किसी भी जीव के लिये मन में कुभाव रखना नहीं । 'सद्' शब्द का अर्थ होता है- ईश्वर । सबमें सद्भाव रखो, इसका अर्थ है- ईश्वर का भाव रखो । आपके शरीर में जो भगवान् हैं, वही भगवान् सबके शरीर में हैं । देह भिन्न-भिन्न है, देव एक हैं ।
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यह फूल की माला दिखती है । इस माला में फूल तो अनेक हैं- अनेक फूलों में धागा एक ही है । जिस प्रकार एक धागे में अनेक फूल हैं, वैसे ही एक ही ईश्वर में यह चित्र-विचित्र संसार है । आकार सभी के भिन्न-भिन्न हैं, सभी आकार में ईश्वर-तत्त्व एक ही है । आपको भगवान् का दर्शन करने की इच्छा है तो बाहर के आकार को क्यों देखते हो- प्रत्येक आकार में भगवान् मिले हुए हैं, प्रत्येक आकार में भगवान् का दर्शन करो । भगवान् मिले हुए हैं- इसलिये बाहर का आकार सुन्दर लगता है । आकार को जो सुन्दर समझता है, उसी के मन में विकार आता है । सुन्दर तो भगवान् हैं । भगवान् विराजमान होने से जगत् में सौन्दर्य का आभास होता है । सभी में सद्भाव रखो ।
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सनातन धर्म में क्रिया को बहुत महत्त्व नहीं दिया है । क्रिया करनेवाले के हृदय में भाव कैसा है- भाव मुख्य है, क्रिया गौण है । बहुत-से लोग भगवान् की सेवा-पूजा करने के बाद हाथ जोड़ करके प्रार्थना करते हैं- 'हे भगवान् ! कृपा करो- मेरे बालकों को सुखी करो ।' मेरे बालकों को सुखी रखो- ऐसी कोई प्रार्थना करे तो ठीक है । पर कितने ही लोग भगवान् को ऐसा भी कहते हैं कि 'मेरे बच्चों को सुखी रखना, पर मेरा जो शत्रु है, उसका सत्यानाश हो जाय- ऐसा करना ।' यह ठीक नहीं है । आपका कोई शत्रु नहीं है । भागवत की कथा सुनते हो, आज से ऐसा निश्चय करो कि इस संसार में कोई मेरा शत्रु नहीं है, किसी ने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी ने मेरा कुछ नुकसान किया नहीं है, किसी ने मुझे दुःख दिया नहीं है । मेरे दुःख का कारण मेरा पाप है ।
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कुभाव से किया हुआ धर्म अधर्म- जैसा होता है । आप कोई भी सत्कर्म करो, उसके आरम्भ में भगवान् के सामने प्रतिज्ञा करनी पड़ती है ।
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।
सर्वेषामविरोधेन ब्रह्मकर्म समारभे ॥
मेरा कोई शत्रु नहीं है, मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ । किसी ने मेरा कुछ भी बिगाड़ा नहीं है- भगवान् के सम्मुख ऐसा बोलना पड़ता है । मन्त्र तो बहुत-से लोग बोलते हैं, अर्थ समझ करके बोलनेवाले कम हैं ।
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सर्वेषामविरोधेन- किसी के साथ मेरा विरोध नहीं है । मैं किसी का शत्रु नहीं हूँ; पर मेरा भी जगत् में कोई शत्रु नहीं है- ऐसी प्रतिज्ञा करने के बाद सत्कर्म का आरम्भ होता है ।
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किसी भी जीव के लिये आप मन में खराब विचार करेंगे तो वह जीव भी आपके लिये खराब विचार करेगा । आपके शरीर में जो भगवान् है, वही भगवान् ! आप जिसको शत्रु समझते हैं, उसके शरीर में भी है । ईश्वर अनेक नहीं है, ईश्वर एक है- देह अनेक हैं । संसार भावमय है । आप जैसा भाव रखोगे, वैसा भाव लोग आपके लिये रखेंगे ।
*जय श्री कृष्ण*
'भागवत-नवनीत' पुस्तक से, 
पुस्तक कोड- 2009, पृष्ठ-संख्या- १६५-१६६, 
गीताप्रेस गोरखपुर 
~ सन्त श्री रामचन्द्र केशव डोंगरे जी महाराज

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